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________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग २६७ नहीं कर पाता । इसके लिए साधक में विशिष्ट मानसिक तथा शारीरिक शक्ति अपेक्षित है। __ जिस प्रकार बच्चों के पटाखों में प्रयुक्त होने वाले साधारण कोटि के बारूद से पहाड़ नहीं उड़ाये जा सकते, उसके लिए विशिष्ट शक्तिशाली बारूद की आवश्यकता होती है और उस बारूद को सुरक्षित रखने के लिए अत्यन्त मजबूत लोहे के सिलिण्डर की भी आवश्यकता होती है। साथ ही बहुत ही ऊँचे दर्जे की (१६००० वोल्ट की) विद्य त-धारा भी आवश्यक होती है इन तीनों साधनों के अभाव में पहाड़ नहीं उड़ाये जा सकते । यही स्थिति सघन, सचिक्कण, अत्यन्त प्रगाढ़ रूप से आत्मा के साथ संश्लिष्ट अनन्तानन्त पौद्गलिक कर्मवर्गणाओं के समूह को नष्ट करने के बारे में है । शुक्लध्यानी साधक का शरीर इतना बलिष्ठ होना चाहिए कि वह सभी प्रकार के उपसर्गों और परीषहों को समभाव से सहन कर सके, साथ ही स्वस्थ हो जिससे साधना में विघ्न रूप न होकर सहायक बने । उसका वैराग्य भाव इतना प्रबल हो कि इन्द्र का ऐश्वर्य देखकर भी न डिगे और शक्ति एवं आत्मिक ऊर्जा इतनी उत्कृष्ट हो कि वह ध्यानाग्नि द्वारा कर्म समूह को भस्म कर सके। इन्हीं शक्तियों की अपेक्षा से शुक्लध्यान को योग्यता उत्तम संहननधारियों को बताई है। इसीलिए स्थानांग' आदि आगमों में शुक्लध्यानी के लिंग, आलम्बन और अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया गया है । शुक्लध्यानी के लिंग लिंग का अभिप्राय चिन्ह अथवा लक्षण है। शुक्लध्यानी के चार लक्षण होते हैं (१) अव्यथ-शुक्लध्यानी साधक मानव, देव, तिर्यंच कृत उपसर्गों और सभी प्रकार के परीषहों को समभाव से सहने में सक्षम होता है । वह न तो भयभीत होता है, न उनका प्रतीकार करता है और न ही अपने मन को १ तत्त्वार्थसूत्र ६/२७, वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच और नाराच-ये तीन उत्तम संहनन हैं। २ स्थानांग, स्थान ४, उद्देशक १, सूत्र २४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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