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________________ १७८ जेन योग : सिद्धान्त और साधना के दर्शन गुण (सम्यग्दर्शन-शुद्ध श्रद्धा) को प्रभावित करती हैं और उसका दृष्टिकोण सम्यक् सर्वग्राही नहीं होते देतीं। क्रोध, मान, राग-द्वेष, माया, कपट, लोभ, काम, अहंकार-ममकार आदि की ग्रन्थियाँ आत्मा के चारित्र गुण को प्रभावित करती हैं, प्राणी को मोक्ष-मार्ग में गति नहीं करने देती, यम-नियम आदि की साधना में बाधक बनती हैं और चारित्रिक विकास को अवरुद्ध करती हैं। उनके कारण आत्मा श्रावकाचार अथवा श्रमणाचार का पालन नहीं कर पाता। मोक्ष अथवा निर्वाण एवं शान्ति-उससे बहुत दूर रहती है। प्राचीन आगमों में तथा तत्त्वार्थसूत्रकार ने ग्रंथि के लिये 'शल्य' शब्द का प्रयोग किया है। जिस प्रकार शल्य (काँटा) हर समय व्यक्ति के मन में चुभता रहता है, उसी प्रकार ग्रन्थि भी साधक को व्यथित किये रहती है। किसी व्यक्ति ने आपका अपमान कर दिया, आप उस समय उसका बदला नहीं ले पाये, लेकिन वह अपमान आपको खटक गया, अब वह वैर की गांठ (ग्रंथि) बन गया, जब तक आप उससे बदला नहीं चुका लेंगे- वह ग्रंथि शल्य के समान खटकती रहेगी, चुभती रहेगी। यह वैर की ग्रन्थि है, जो लम्बे समय तक चलने वाले क्रोध का परिणाम होती है। __ जैन मनोविज्ञान के अनुसार मनोग्रन्थियां दो प्रकार की होती हैं१ वैदिक परम्परा में तीन प्रकार की हृदय ग्रन्थियां मानी गई हैं-(१) आगामी कर्म (२) संचित कर्म और (३) प्रारब्ध कर्म ।। (१) आगामी कर्मों को उपनिषद् में ब्रह्मप्रन्थि, चंडी में मधुकैटभ और तंत्र में कुल-कुण्डलिनी कहा गया है । इसका स्थान मनोमय कोष माना गया है तथा स्वामी ब्रह्मा को । यहाँ मन के दो मुख माने गये हैं-एक नीचे को ओर तथा दूसरा ऊपर की ओर । नीचे का मुख प्रवृत्ति की ओर प्रवाहित रहता है अर्थात् मन सहज रूप से सांसारिक विषयों की ओर दौड़ता रहता है । इसके विपरीत ऊपर का मुह सद्गुरु का सत्संग तथा उनकी कृपा प्राप्त होने पर खुलता है और निवृत्ति की ओर प्रवाहित होने लगता है । सार यह कि मन की सहज प्रवृत्ति संसाराभिमुख होती है; किन्तु सत्संग तया गुरुकृपा से उसका प्रवाह निवृत्ति की ओर होने लगता है। __इस ग्रन्थि के भेदन के लिए आत्म-साक्षात्कार आवश्यक है, बिना आत्मदर्शन के इस ग्रन्थि का यथार्थ भेदन नहीं होता। आत्मसाक्षात्कार अथवा आत्म-दर्शन के लिए साधक अपने मन को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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