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योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ४३ से किया जाता है, इसमें जप संख्या भी निश्चित होती है जिसका अतिक्रमण नहीं किया जाता; साथ ही वह जप-साधना निश्चित समय में की जाती है।
(५) चलजप-वामन पण्डित के अनुसार-आते-जाते, उठते-बैठते, खाते-पीते, करते-धरते, सोते-जागते जो मन्त्र-जप किया जाता है, वह चलजप कहलाता है । यह जप कोई भी व्यक्ति कर सकता है। इसमें कोई नियम अथवा बन्धन नहीं है । ऐसे जप से मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है और उसे ऊर्ध्व गति की प्राप्ति होती है।
(६) वाचिकजप-इस जप में मन्त्र का उच्चारण सस्वर किया जाता है, स्वर इतना उच्च होता है कि दूसरे भी सुन सकें।
जपयोगी के लिए प्रारम्भिक अवस्था में यही जप सुगम होता है । आगे के जप श्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। __मानव के सूक्ष्म शरीर में षट्चक्र अवस्थित हैं, उनमें सस्वर-जप से ध्वनियन्त्रों की टकराहट द्वारा वर्णबीज शक्तियाँ जागृत हो उठती है। इससे जपयोगी को वासिद्धि भी प्राप्त हो सकती है। वाकशक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा भाग है। इससे बड़े-बड़े काम हो सकते हैं।
(७) उपांशुजप-इसे भ्रमर-जप भी कहा जाता है। भ्रमर के समान गुजारव करते हुए यह जप होता है। इसीलिए कुछ लोग इसे भ्रमर-जप कहते हैं।
___उपांशु-जप में जीभ एवं होठ नहीं चलते । आँखें झपी हुई रखते हुए जपयोगी श्वासोच्छ्वास के-प्राणवायु के संचार के सहारे मन्त्र की आवृत्ति करता रहता है । इससे प्राण-गति धीमी होने लगती है, दीर्घश्वास का अभ्यास हो जाता है । प्राण सूक्ष्म हो जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होता है । कुछ काल के अभ्यास के बाद साधक को पूरक के साथ ही वंशी की-सी ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, यही अनहद नाद है।
उपांशुजप के द्वारा मूलाधार चक्र से लेकर भ्र भध्य स्थित आज्ञा चक्र के सभी चक्र स्वयमेव जाग्रत हो उठते हैं। इसका परिणाम आज्ञा चक्र पर विशेष रूप से दिखाई देता है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता । स्मरण शक्ति बढ़ती है। चित्त प्रफुल्लित रहता है। तैजस् शरीर एवं तैजस परमाणु शक्तिशाली हो जाते हैं। आन्तरिक तेज बढ़ता है। सांसारिक कामनाओं और इच्छाओं का विनाश हो जाता है। देव दर्शन होता है और दिव्य जगत प्रत्यक्ष होने लगता है।
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