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४४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
उपांशु-जप जपयोग में अत्यधिक महावपूर्ण है।
(८) मानसजप-यह जपयोग का प्राण ही है। जपयोग में इसका सर्वाधिक महत्व है।
जिस प्रकार उपांशु-जप प्राण (श्वासोच्छ्वास) के सहारे किया जाता है उसी प्रकार मानस जप मन के सहारे होता है । स्थूल और सूक्ष्म शरीर तो क्या जपयोगी इस जप में प्राण का आश्रय भी छोड़ देता है, वह मन के द्वारा ही जप करता है । इस क्रिया से मन आनन्दमय हो जाता है। साधक को अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है।
जपयोग में मानस-जप सर्वश्रेष्ठ है।
इनके अतिरिक्त भी जप के अनेक भेद हैं, यथा-अखण्डजप-इसे साधक निरन्तर करता रहता है । अजपाजप, यह सहज जप है। श्वासोच्छ्वास के साथ ही यह जप होता रहता है। इसका एक उदाहरण 'सोऽहं' का जप है। श्वास लेते समय 'सो' की आवृत्ति होती है और छोड़ते समय 'ऽहं' की। इस रीति से दिन-रात में हजारों की संख्या में जप हो जाता है।
जपयोग एक सरल योग है, जिसे सभी प्रकार के साधक कर सकते हैं, इसमें किसी भी प्रकार की बाधा नहीं है और न कोई क्रियाकाण्ड ही करना पड़ता है। योग की विशेष क्रियाओं और विधियों के ज्ञान तथा अभ्यास की भी कोई विशेष आवश्यकता नहीं होती। अतः यह सर्वजनसुलभ है । मन्त्रयोग
__ संसार के सभी साहित्यों में मन्त्रों को बहुत महिमा बताई गई है। आदिम कबीलों से लेकर सभ्यता के चरम शिखर पर पहुँचे हुए मानव भी मन्त्र-शक्ति से प्रभावित हैं। जन सामान्य से लेकर वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों तथा परामनोवैज्ञानिकों ने भी मन्त्र शक्ति का लोहा माना है। मनोवैज्ञानिक मन्त्र को auto suggestion कहते हैं तथा वे भी यह मानते हैं कि इससे मनुष्य को अतीव शक्ति प्राप्त होती है। जन-साधारण में तो यह धारणा व्याप्त ही है कि मन्त्रों में गुह्य शक्ति होती है और इस शक्ति से असम्भव को भी सम्भव बनाया जा सकता है।
___ यद्यपि यह सत्य है कि मन्त्रों में बहत शक्ति होती है किन्तु उस शक्ति को प्राप्त करने के लिए मन्त्रों की विधि तथा उनके अंगों का ज्ञान अति आवश्यक है । मन्त्रयोग के १६ अंग हैं।
(१) भक्ति-यह मन्त्रयोग का प्रथम अंग है। इसमें मन्त्र के प्रति
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