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६२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
तथा विवेकशून्य होता है । विक्षिप्त मन कभी - कभी स्थिर' भी हो जाता है । ये तीनों अवस्थाएँ योग-समाधि के लिए अनुपयोगी हैं । एकाग्रचित्त में स्थिर होने का गुण विकसित हो जाता है और निरुद्ध मन में सभी बाह्य वृत्तियों का अभाव हो जाता है । इसलिए अन्तिम दो अवस्थाएं योग साधना के लिए अनुकूल हैं ।
इसी प्रकार भागवत में भी मन की चार अवस्थाएं मानी गई हैं । प्रश्नोपनिषद् में भी इन अवस्थाओं का वर्णन किया गया है ।
योग संग्रह
चारित्र विकास के लिए तथा योग साधना हेतु साधकों के लिए कुछ आवश्यक नियम-उपनियम तथा क्रियाओं को करने का विधान है, इन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावली में योग संग्रह कहा गया हैं । इनका उल्लेख समवायांग सूत्र में मिलता है । ये योग संग्रह बत्तीस हैं ।
(१) आलोचना - गुरु के समक्ष अपने दोषों को स्वीकार करना । (२) निरपलाप - शिष्य के दोष दूसरों के सामने प्रगट नहीं करना । (३) व्रतों में स्थिरता - अंगीकृत व्रत - नियमों का आपत्तिकाल में भी परित्याग नहीं करना !
(४) अनिरपेक्ष तपोपधान - अन्य किसी की सहायता की अपेक्षा न करके तप करना ।
(५) शिक्षा - शास्त्रों का पठन-पाठन करना ।
(६) निष्प्रतिकर्मता - शरीर की सजावट तथा श्रृंगार न करना ।
(७) अज्ञातता - अपने द्वारा किए गये तप को गुप्त रखना ।
(८) अलोभता - लोभ न रखना ।
(e) तितिक्षा - परीषहों को समभावपूर्वक सहना ।
(१०) ऋजुभाव - भावों में सरलता रखना ।
तत्व वैशा० टीका - वाचस्पति मिश्र १ / १ २ भोजवृत्ति १ / २
३ श्रीमद्भागवत ११/१३/२७
४ प्रश्नोपनिषद् ५/६
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समवायांग सूत्र, ३२व समवाय
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