________________
जैन योग का स्वरूप
६३
(११) शुचि-सत्य तथा संयम में वृद्धि करते रहना। (१२) सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दृष्टि होना। (१३) समाधि-चित्त को एकाग्रता तथा समताभाव । (१४) आचार-आचार पर दृढ़ रहना । (१५) विनय-आत्म-परिणामों में विनम्रता रखना। (१६) धृतिमति-धैर्यपूर्ण मति । (१७) संवेग-मोक्ष विषयक तीव्र अभिलाषा । (१८) प्रणिधि-माया अथवा कपट रहितता। (१६) सुविधि-सदनुष्ठान । (२०) संवर-कर्मो के आगमन को रोकना। (२१) आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का निरोध करना। (२२) सर्वकामविरति -सभी प्रकार की इच्छाओं से विरति रखना । (२३) मूलगुणसम्बन्धी प्रत्याख्यान । (२४) उत्तरगुणसम्बन्धी प्रत्याख्यान । (२५) व्युत्सर्ग-त्याग ।
(२६) अप्रमाद-प्रमाद न करना। (प्रमाद १५ प्रकार का है, उन सब प्रकार के प्रमादों का त्याग करना ।)
(२७) लवालव-क्षण-प्रतिक्षण अपने स्वीकृत आचार का पालन करना।
(२८) ध्यान-संवर योग तथा धर्म और शुक्ल ध्यान अर्थात् शुभ ध्यान करना।
(२६) मारणांतिक उदय-मारणांतिक परीषह आने पर भी दुःख एवं क्षोभ नहीं करना।
(३०) संग-त्याग-मन में असंग भाव रखना। (३१) प्रायश्चित्त करना।
(३२) मारणांतिक आराधना-जीवन के अन्तिम समय की साधनाकाय और कषाय को कम करते हुए समभाव से निर्भय होकर मृत्यु का वरण करना।
ये योग-संग्रह के बत्तीस सूत्र जैन योग की आधार-भूमि माने गये हैं। इनके पालन और सुदृढ़तापूर्वक सफल बनाने का उपदेश श्रमण और श्रावक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org