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________________ जन योग का स्वरूप ६१ हैं और आत्मा के अपने स्वरूप की उपलब्धि में बाधक बनती है इसलिए चंचल मन को स्थिर करना योग की पहली शर्त है। मन के बारे में अध्यात्म कल्पद्रम में कहा गया है-मन की समाधि योग का हेतु तथा तप का निदान है, और मन को केन्द्रित करने के लिए तप आवश्यक है, अतः तप शिवशर्म का-मोक्ष का मूल कारण है।' मन के प्रकार जैन आचार्य हेमचन्द्र ने मन के चार प्रकार बताये हैं-(१) विक्षिप्त मन (२) यातायात मन (३) श्लिष्ट मन और (४) सुलीन मन । इसी प्रकार पातंजल योग के भाष्यकार ने भी चित्त की पाँच भूमिकाएं स्वीकार की हैं(१) क्षिप्त, (२) मूढ़, (३) विक्षिप्त, (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध। ये भूमिकाएँ चित्त की अवस्थाएँ ही हैं। विक्षिप्त मन तो चंचल होता ही है किन्तु यातायात मन विक्षिप्त मन की अपेक्षा कम चंचल होता है। क्योंकि चंचलता योग में विघ्न रूप होती है, इसलिए योगी को इन दोनों प्रकार के मन पर नियन्त्रण स्थापित करना चाहिए। श्लिष्ट नाम का तीसरा मन स्थिरतायुक्त और आनन्दमय होता है तथा जब यह मन स्थिर हो जाता है तो चौथा सुलीन मन होता है। इसी प्रकार का वर्णन चित्त की भूमिकाओं का किया गया है । क्षिप्त मन रजोगुण प्रधान और चंचल होता है। मूढ़ चित्त तमोगुणप्रधान और आलसी योगस्य हेतुर्मनसः समाधिः परं निदानं तपसश्च योगः । तपश्च मूलं शिवशर्म आहुः मनःसमाधि भज तत्कथंचित् ।। -अध्यात्म कल्पद्र म ६/१५ २ इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्ट तथा सुलीनं च ।। चेतश्चतुःप्रकारं तज्ज्ञ-चमत्कारि भवेत् ॥ -योगशास्त्र १२/२ ३ क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तं एकाग्रं निरुद्ध चित्तस्य भूमयः चित्तस्य अवस्था विशेषाः । -भोजवृत्ति १/२ तथा योगभाष्य ४ योगशास्त्र (हेमचन्द्र) १२/३ ५ वही १२/४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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