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६० जैन योग : सिद्धान्त और साधना
वैदिक विद्वानों ने भी योग के संयोग और समाधि दोनों अर्थों का समन्वय करते हए जो सारगर्भित व्याख्या की है, उससे भी इसी तथ्य का समर्थन होता है।
मोक्ष के साधन के रूप में जैन धर्म-दर्शन ने रत्नत्रय को ही सर्वोत्तम उपाय (योग) स्वीकार किया है। यह रत्न सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्ररूप है। यह योग (उपाय) अथवा साधन शास्त्रों का उपनिषद् है, मोक्ष को देने वाला है, तथा समस्त विध्न-बाधाओं का उपशमन करने वाला है, अतः कल्याणकारी है। यह (योग) इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कराने वाला कल्पवृक्ष एवं चिन्तामणि है। धर्मों में प्रधान यह योग सिद्धि-जीवन की चरम सफलता-मुक्ति का अनन्य हेतु है ।'
___ इस प्रकार जैन आचार्यों ने योग के लक्षण में साध्य अर्थात् समाधि और उस समाधि को प्राप्त कराने वाले साधन-दोनों का समन्वय किया है।
मन के अचंचलता आवश्यक ___ योगसिद्धि के लिये यह आवश्यक है कि मन स्थिर रहे, एकाग्र हो, चंचल न रहे, उसकी चंचलता मिट जाय । अतः सर्वप्रथम मन को नियन्त्रण में करना आवश्यक है। मन के कारण ही इन्द्रियाँ चंचल होती है । इस प्रकार मन और इन्द्रियों की चंचलता एकोन्मुखता के मार्ग में भटकाव उत्पन्न करती
समाधिमेव च महर्षयो योगं व्यपदिशन्ति-यदाहुः योगियाज्ञवल्क्याः --'समाधिः समतावस्था, जीवात्म-परमात्मनोः । संयोगो योग इत्युक्तः, जीवात्म-परमात्मनोः' इति । अतएव स्कन्धादिषु-'यत्समत्वं द्वयोरत्र, जीवात्म परमात्मनोः, समष्टसर्वसंकल्पः समाधिरभिधीयते ।' 'परमात्मात्मानोर्योऽयमविभागः परन्तप ! स एव तु परो योगः समासात् कथितस्तव ।' इत्यादिषु वाक्येषु योग समाध्योः समानलक्ष
णत्वेन निर्देशः संगच्छते। -स्वामि बालकरामकृत-योगभाष्य भूमिका २ (क) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्मः ।
-तत्वार्थ सूत्र १/१ (ख) ज्ञानदर्शनचारित्ररूपरत्नत्रयात्मकः । योगोमुक्तिपदप्राप्तानुपायः परिकीर्तितः ।।
-योगप्रदीप ११३ ३ शास्त्रस्योपनिपद्योगो योगो मोक्षस्य वर्तनी ।
अपायशमनो योगो, योगकल्याणकारकम् ॥ - योगमाहात्म्य द्वात्रिंशिका, १ ४ योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधान धर्माणां योगः सिद्धः स्वयंग्रहः ।।
-योगबिन्दु ३७.
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