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योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] १११ (१४) अपनो आर्थिक स्थिति के अनुकूल वस्त्र पहनना; आशय यह है कि विशेष तड़क-भड़क के वस्त्र न पहने, सामान्य किन्तु साफ वस्त्र पहने, वेश ऐसा हो कि गंभीरता की छाप पड़े।
(१५) बुद्धि के आठ गुणों से युक्त होकर धर्म श्रवण करना। (१६) अजीर्ण होने पर भोजन न करना। (१७) नियत समय पर प्रसन्नचित्त होकर भोजन करना ।
(१८) धर्म से मर्यादित होकर अर्थ और काम पुरुषार्थ का सेवन करे अर्थात् अर्थार्जन एवं काम-सेवन में धर्म की मर्यादा का ध्यान रखे ।
(१६) दीन, असहाय, अतिथि और साधुजनों का यथायोग सत्कार करना।
(२०) कभी दुराग्रह के वश में न हो अर्थात् दुराग्रही न बने । (२१) गुणग्राही हो, जहाँ से भी गुण मिले, उन्हें ग्रहण करे । (२२) देश-काल के प्रतिकूल आचरण न करे ।
(२३) अपनी शक्ति और सामर्थ्य को समझे, शक्ति होने पर ही किसी में हाथ डाले।
(२४) सदाचारी तथा अपने से अधिक ज्ञानवान व्यक्तियों की विनय काम एवं भक्ति करे। .
(२५) कर्तव्यपरायण हो अर्थात् जिनके पालन-पोषण का भार उसके ऊपर हो, उनका यथाविधि पालन-पोषण करे।
(२६) दीर्घदर्शी हो अर्थात् आगे-पीछे का विचार करके कार्य करे। (२७) अपने हित-अहित एवं भलाई-बुराई को समझे ।
(२८) लोकप्रिय हो, अर्थात् अपने सदाचार और सेवाकार्य द्वारा जनता का प्रेम संपादन करे।
(२९) कृतज्ञ हो-अपने प्रति किये गये उपकार को नम्रतापूर्वक स्वीकार करे।
(३०) लज्जाशील हो-अनुचित कार्य करने में लज्जा का अनुभव करे। (३१) दयावान हो। (३२) सौम्य हो-चेहरे पर शांति और सौम्यता झलकती हो।
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