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________________ २५० जना योग : सिदान्त और साधना कषाय प्रतिसंलीनता तप .. कषाय चार हैं- (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया, (४) लोभ । कषाय ही जन्म-मृत्यु रूप संसार-परिभ्रमण का मुख्य कारण हैं ।' देशोनकोटि पूर्व तक महान साधना करके जो फल प्राप्त किया जाता है, वह संपूर्ण उपलब्ध फल अन्तमुहूर्त की कषाय द्वारा ही भस्म हो जाता है। __ कषाय अन्तर् की ज्वाला है, भीषण अग्नि है, आध्यात्मिक दोष है। यह अग्नि ठंडी भी है और गरम भी है। माया और लोभ को कषायाग्नि ठंडी है तथा क्रोध और मान की अग्नि गरम है, धधकती ज्वाला है । लेकिन ठंडी और गरम दोनों ही प्रकार की आग आत्मा को परितप्त करती है। - इसीलिए तपोयोगी साधक कषाय प्रतिसंलीनता तप की आराधना द्वारा कषायों पर विजय प्राप्त करता है। कषायों को विजय करने अथवा कषाय-प्रतिसंलीनता तप की आराधना के दो प्रकार हैं (१) कषायों के उदय (आते हए आवेग) का निरोध करना; तथा (२) उदय में आये हुए कषायों को विफल (व्यर्थ-असफल) कर देना। कषाय-प्रतिसंलीनता तप के कषायों के आधार पर चार भेद हैं(१) क्रोध-कषाय प्रतिसंलीनता तप (२) मान-कषाय प्रतिसंलीनता तप (३) मायाकषाय प्रतिसंलीनता तप (४) लोभकषाय प्रतिसंलीनता तप तपोयोगी साधक क्रोध कषाय पर उपशम भाव से, मान पर मृदुता से, माया पर ऋजुता से और लोभ कषाय पर संतोष भाव से विजय प्राप्त करता है। १ आचारांग नियुक्ति १८६ २ जं अज्जियं चरितं देसुण्णए वि पुवकोडीए । __तं पि कसायमेत्तो नासेइ नरो मुहुत्तणं ॥ -निशीथभाष्य २७६३ ३ कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं घउत्थं मज्झत्थदोसा। -सूत्रकृतांग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध, वीरस्तव छठा अध्ययन, 'गाथा २६ ४ औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० ५ उवससेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे । मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसिओ जिणे ॥ -दशर्वकालिक सूत्र-८/३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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