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बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना २५१ इन सैद्धान्तिक उपायों के साथ-साथ तपोयोगी साधक कषायों पर विजय प्राप्त करने के कुछ व्यावहारिक साधन भी अपनाता है।
उदाहरणार्थ-जब क्रोध का वेग मन में आता है तो वह तुरन्त अन्तमुखी बनकर उस वेग को तटस्थ द्रष्टा के रूप में देखता है, उसकी प्रेक्षा करता है। किन्तु उसमें अपने आप को संयोजित नहीं करता । इस प्रकार क्रोध का वेग निर्बल होकर उपशांत हो जाता है। दूसरा उपाय साधक यह करता है कि क्रोध के स्वरूप तथा उसके कट परिणामों पर चिन्तन करने लगता है। इससे भी क्रोध उपशान्त हो जाता है।
मान कषाय पर विजय प्राप्त करने के इच्छक तपोयोगी को अनित्य और अशरण भावना का चिन्तन लाभकारी है। साथ ही अपने अहं अथवा मान कषाय के आवेग के उपशमन के लिए अपने से ज्ञान, चारित्र आदि में उच्च व्यक्तियों का, जैसे पंच परमेष्ठी का चितन करता है। इसके अतिरिक्त वह छोटे-बड़े का भेद भाव हृदय से दूर करके सबको समान मानता है, समत्व भाव का विचार करता है। इस प्रकार वह मान के वेग-मान कषाय पर विजय प्राप्त करता है।
माया कषाय के विजय के लिए तपोयोगी ऋजुता/ऋजुयोग की साधना करता है । हृदय की सरलता, निष्कपटता, निश्छलता से ही माया कषाय पर साधक विजय प्राप्त करता है।
लोभ कषाय की विजय के लिए साधक के पास सर्वोत्तम उपाय इच्छाओं का संयम और यथालाभ संतोष भाव है।
इन उपायों से सपोयोगी साधक कषायों के आवेग को रोक कर तथा उन आवेगों को विफल करके कषाय प्रतिसंलीनता तप की आराधना करता है और आन्तरिक दोषों से मुक्त होकर मानसिक तथा शारीरिक शान्ति प्राप्त करता है।
योगप्रतिसंलीनता तम मन, वचन और काया-ये तीनों प्रवृत्ति के निमित्त हैं अतः योग कहे गये हैं । अकुशल मन तथा वाणी का निरोध करना, मन और वचन की कुशल प्रवृत्ति; एवं काय तथा शरीर के विभिन्न अवयवों की कुचेष्टा तथा
१ इन भावनाओं पर विशद चिन्तन इसी पुस्तक के 'भावना योग साधना' नामक अध्याय में किया जा चुका है।
-संपादक
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