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________________ २५२ जन योग : सिद्धान्त और साधना व्यर्थ चेष्टा का निरोध और हाथ-पैर आदि सभी अंग-उपांगों को सुस्थिर कर, कछुए के समान अपनी सभी इन्द्रियों को गुप्त करके सुसमाहित होना, निश्चल होना, योग प्रतिसंलीनता है।' तपोयोगी साधक के लिए योग प्रतिसंलीनता तप की कुछ भूमिकाएं हैं। मनोयोग प्रतिसंलीनता तप की-(१) अकुशल मन का निरोध, (२) कुशल मन की प्रवृत्ति, और (३) मन की एकाग्रता-ये तीन भूमिकाएँ हैं। इसी प्रकार वचनयोग प्रतिसंलीनता तप की भी तीन भूमिकाएं हैं(१) अकुशल वचन का निरोध, (२) कुशल वचन की प्रवृत्ति और (३) वचन की एकाग्रता अथवा मौन । काययोग प्रतिसंलीनता तप की भी तीन भूमिकाएँ हैं-(१) काय का अप्रशस्त प्रवृत्ति का निरोध, (२) प्रशस्त प्रवृत्ति करना और (३) काय की स्थिरता। योग प्रतिसंलीनता तप की आराधना करता हुआ साधक मन-वचनकाय-इन तीनों योगों को सुसमाहित करता है। मनोयोग को साधना-मन सामान्यतः चंचल रहता है, वह स्थिर तो सिर्फ एकाग्र होने पर ही होता है; अन्यथा साधारणतया तो वह विभिन्न प्रकार के संकल्प-विकल्पों में ही उलझा रहता है। यहाँ तक कि जब मनुष्य निद्रा ले रहा होता है तब भी वह कल्पना लोक के, दुनिया भर के सैर-सपाटे कर रहा होता है जिसका प्रतिबिम्ब स्वप्न के रूप में प्रगट होता है। संसाराभिमुख और विषय-कषायों में अनादिकाल से प्रवृत्त होने के कारण मन की प्रवृत्ति सामान्यतया अप्रशस्त रहती है। शुभ या प्रशस्त प्रवृत्ति तो बहुत ही कम यदा-कदा होती है। तपोयोगी साधक सर्वप्रथम मन की अकुशल प्रवृत्ति का निरोध करता है, किन्तु मन बिना किसो आलम्बन के टिकता नहीं, प्रवृत्ति करना उसका स्वभाव है, इसलिए साधक उसे कुशल प्रवृत्ति में लगाता है और फिर कुशल १ (क) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३०. (ख) भगवती सूत्र (२५/७) में मन-वचन-योग प्रतिसंलीनता तप में दो बातें और बताई गई हैंमणस्स वा एगत्तीभावकरणं-वइए वा एगीभावकरणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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