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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
--एक ज्योति आ जाती है, जिसके आलोक में साधक अपने पथ पर निर्बाध गति से बढ़ता जाता है. न कहीं उलझता है और न कहीं भटकता है। श्रद्धायुक्त दर्शन दिव्यदर्शन बन जाता है।
व्याकरण की दृष्टि से सम्यक शब्द के तीन प्रमुख अर्थ हैं-प्रशस्त, संगत और शुद्ध । प्रशस्त विश्वास ही सम्यग्दर्शन है। प्रशस्त का एक अर्थ मोक्ष भी है । अतः मोझलक्ष्यी दर्शन हो सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन : स्वरूप और महत्व
___ सम्यग्दर्शन-तत्त्वसाक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तर्बोधि, दृष्टिकोण, श्रद्धा, भक्ति आदि लक्षणात्मक या स्वाभाविक अर्थों को अपने आप में समेटे हुए है।
यों सम्यग्दर्शन के अनेक लक्षण विभिन्न आचार्यों ने बताये हैं ; किन्तु उनमें से प्रमुख हैं
प्रथम-यथार्थ तत्त्वश्रद्धा द्वितीय-देव-गुरु-धर्म पर दृढ़श्रद्धा तृतीय-स्व-पर का भेद दर्शन (भेदविज्ञान) चतुर्थ-शुद्ध आत्मा की रुचि-शुद्ध आत्मा का अनुभव ।
वे सभी लक्षण परस्पर भिन्न नहीं, अपितु विभिन्न अपेक्षाएँ लिए हुए हैं, एक ही सम्यग्दर्शन को विभिन्न अपेक्षाओं से देखा गया है । ये परस्पर एक-दूसरे से संबंधित हैं।
जिसे यथार्थ तत्त्वश्रद्धा होगी, उसे स्व-पर का भेद-विज्ञान हो ही जायेगा और फिर उसे शुद्ध आत्मा की रुचि जगेगी तो उसे आत्मानुभव होगा ही, तथा आत्मा का अनुभव जब उसे अंतरंग में होगा तो बाह्यरूप से उसकी श्रद्धा सच्चे देव-धर्म-गुरु पर स्वयमेव ही जम जायेगी । अथवा यों भी कह सकते हैं कि जो तत्वों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेगा, उसे स्वयं ही देव-गुरुधर्म पर विश्वास जम जायेगा, फिर उसे स्व-पर का भेद-विज्ञान होकर आत्मअनुभव भी होगा। इन दोनों कथनों कोई भिन्नता नहीं, सिर्फ अपेक्षाभेद है।
लेकिन आत्मिक उन्नति के लिए आत्मानुभवरूप सम्यग्दर्शन से बढ़कर अन्य कोई उत्तम पाथेय नहीं है। आत्मश्रद्धा; अपने निज के स्वरूप पर अटल विश्वास है । यह विश्वास, श्रद्धा अथवा सम्यग्दर्शन योग के साधक के लिए सर्वोत्तम साधन है।
___ सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) समस्त गुणों का बोज है। इस श्रद्धा का आश्रय
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