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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
दबाकर उसकी ऊर्ध्वगतिशील चेतना धारा को नीचे लाता है। परिणामस्वरूप साधक के संपूर्ण शरीर में प्राणों का संचार हो जाता है, उसकी समाधि भंग हो जाती है।
ऐसी ही स्थिति आचार्य पुष्यमित्र के शिष्य उत्तरसाधक के सामने उपस्थित हो गई, उसे भी अपने गुरुदेव की समाधि भंग करनी पड़ी।
घटना यों हई
आचार्य पुष्यमित्र तो कक्ष में जाकर 'शवासन' (शरीर का शव के समान निश्चल, निश्चेष्ट और निष्क्रिय हो जाना-शारीरिक हलन चलन का पूर्ण अभाव होना) से लेट गये और प्राण को अतिसूक्ष्म करके महाप्राणध्यान साधना में लीन हो गये। उनका उत्तरसाधक वह शिष्य सावधानी से चौकसी करने लगा कि कोई भी व्यक्ति उनके पास जाकर उनकी समाधि भंग न कर दे।
आचार्यश्री के और भी शिष्य थे। उन्होंने देखा कि आचार्यश्री बाहर नहीं आ रहे हैं तो वे दो-तीन दिन तो चुप रहे, फिर उन्होंने आचार्यश्री के पास जाने का आग्रह किया । उस शिष्य ने उन्हें रोका । इस पर इन्हें उत्तरसाधक पर शक हो गया कि 'इसने गुरुदेव को मार दिया है, अन्यथा उनके दर्शनों से रोकने का दूसरा क्या कारण हो सकता है।' अब तो उनका आग्रह अधिक उग्र हो गया। उत्तरसाधक ने खिड़की से उन शिष्यों को गुरुदेव के दर्शन करा दिये।
शिष्यों ने गुरुदेव को निश्चेष्ट शव के समान स्थिर देखा तो उनका शक विश्वास में बदल गया। उन्होंने तुरन्त यह समाचार श्रावक संघ तक पहुँचा दिया और श्रावक संघ ने राजा को कह सुनाया। राजा भी आचार्यश्री का परम भक्त था। तुरन्त राजा सहित श्रावक संघ और नगर के नरनारी इकट्ठे हो गये और उस उत्तरसाधक को बुरा-भला कहने लगे । भीषण संकट उपस्थित हो गया।
__ इस संकट से उबरने का उत्तरसाधक के पास एक ही उपाय था, और वह था गुरुदेव की समाधि को भंग करना। उसने ऐसा ही किया । गुरुदेव के दाहिने पैर का अंगूठा दबाया। गुरुदेव की प्राणधारा जो ब्रह्मरंध्र में ही बह रही थी, अधोमुखी हुई, संपूर्ण शरीर में प्राणों का संचार हुआ। गुरुदेव उठ बैठे, आँखें खोलकर उत्तरसाधक से कहा- वत्स ! इतनी जल्दी तुमने मेरी समाधि क्यों भंग कर दी? मैं तो लम्बे समय तक समाधिस्थ रहना चाहता था।
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