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ध्यानयोग साधना
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आचार्य भद्रबाहु महासाधक थे । इन्होंने महाप्राणध्यान की साधना नेपाल की एकान्त, शान्त, निर्जन गुफा में की थी । इनके साथ कोई उत्तरसाधक होने का उल्लेख नहीं मिलता, अर्थात् इन्होंने अकेले ही साधना की थी । अकेले साधना करने वाले साधक का मनोबल बहुत ऊँचा होता है, वह स्वयं ही महाप्राणध्यान साधना से पहले काल- मान निश्चित कर लेता है कि 'अमुक समय तक मैं समाधिस्थ रहूँगा' और फिर अपने प्राणों को सूक्ष्म अतिसूक्ष्म कर लेता है । उस समय उसका आसन ' पर्यंकासन' अथवा 'शवासन' होता है । सूक्ष्मतम प्राण उसके ब्रह्मरंध्र में ही गतिशील रहता है ।
ऐसी उच्च कोटि की महाप्राणध्यान साधना श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु ने की थी ।
दूसरे साधक थे आचार्य पुष्यमित्र । ये भी महाप्राणध्यान साधना करना चाहते थे । प्राणों को सूक्ष्म करने की विधि तो इन्हें ज्ञात थी किन्तु इन्हें एक कुशल उत्तरसाधक की आवश्यकता थी ।
आचार्य पुष्यमित्र का एक शिष्य था । था तो वह अत्यन्त कुशल, मेधावी और सजग-सावधान; किन्तु आचार्यश्री से किसी बात पर थोड़ा सा मतभेद हो जाने के कारण वह अन्यत्र चला गया था । आचार्यश्री ने उसे योग्य उत्तरसाधक समझकर अपने पास बुलाया और महाप्राण ध्यान साधना करने की अपनी इच्छा प्रगट की तथा उसे उत्तरसाधक बनने को कहा । शिष्य ने उत्तरसाधक बनने का गुरुतर कार्य स्वीकृत कर लिया । आचार्यश्री धर्मस्थानक के भीतरी कक्ष में जाकर महाप्राणध्यान साधना में लीन हो गये और शिष्य ने उत्तरसाधक का भार सँभाल लिया ।
उत्तरसाधक का कार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है । उस पर जिम्मेवारी भी अत्यधिक होती है । साधक के शरीर की सुरक्षा, समाधि के बाह्य विघ्नों आदि से सुरक्षा का भार उसी पर होता है । साधक तो समाधि में लीन होकर निश्चेष्ट हो जाता है; किन्तु बाहरी सभी व्यवधानों और बाधाओं का निराकरण करने का भार उत्तरसाधक पर आ जाता है । कभीकभी ऐसी भी स्थिति आ जाती है, अज्ञानी एवं समाधि की इस उच्च भूमिका से अनभिज्ञ लोग वातावरण को इतना दूषित कर देते हैं, कि उत्तरसाधक उस विपरीत परिस्थिति को सँभाल नहीं पाता और उसे साधक की समाधि असमय ही भंग करनी पड़ती है । वह साधक के दाएँ पैर के अंगूठे को
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