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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
महाप्राणध्यानयोग में साधक अपने तीनों योगों को निश्चेष्ट करने की साधना करता है। इस साधना के लिए वह अपने प्राणों को स्थूल से सूक्ष्म करता है । प्राण से यहाँ अभिप्राय है श्वासोच्छ्वास ।
साधक श्वासोच्छ्वास की गति धीमी करता जाता है। धीरे-धीरे सतत अभ्यास से गति इतनी सूक्ष्म हो जाती है कि साधक का शरीर निश्चेष्ट शव के समान पड़ा रहता है, सिर्फ ब्रह्मरन्ध्र में ही प्राण का संचार होता रहता है।
___ इस ध्यान-साधना से मस्तिष्कीय शक्तियाँ अत्यधिक विकसित हो जाती हैं, द्वादशांग श्रत की विशाल राशि का पारायण साधक एक अन्तमुहूर्त (४८ मिनट से कम समय) में ही करने में सक्षम हो जाता है, उसकी अतीन्द्रिय ज्ञान की क्षमताएं भी बहुत विकसित हो जाती हैं, वह भूत-भविष्य की बातें भी जानने लगता है।
असाधारण साधक तो इतना उच्च श्रेणी पर अवस्थित हो जाता है कि वह अपने प्राणों को ब्रह्मरन्ध्र तक ही सीमित रखता है। ऐसे योगी शान्त, एकान्त, निर्जन वन, कन्दराओं में ध्यानस्थ रहते थे । साधारण साधक ब्रह्मरन्ध्र के साथ पैर के अंगूठे में भी प्राणधारा को प्रवाहित रखते थे अतः पैर के अंगूठे को दबाने से उनकी समाधि खुल सकती थी, प्राणों का प्रवाह पूरे शरीर में होने लगता था।
_इस विशिष्ट साधना का ध्येय संवर और निर्जरायोग को उत्कृष्ट साधना था। तीनों योगों के स्थिर होने से संवरयोग सधता था तथा पुराने संचित और आत्मा से लिप्त कर्म निर्जीर्ण होते चले जाते थे। साधक की कर्मनिर्जरा तीव्र गति से होती थी। साधक दीर्घकाल तक–महीनों तक समाधि में लीन रह सकता था।
साधारणतया महाप्राणध्यान की साधना पूर्वज्ञान के धारक उत्कृष्ट योगी किया करते थे। इससे उनका ज्ञान निर्मल रहता था और विस्मत नहीं हो पाता था । पूर्वज्ञान की विलुप्ति और दृष्टिवाद अंग की विलुप्ति के साथ यह ध्यान साधना भी विलुप्त हो गई। अब तो इस ध्यान साधना और साधकों का उल्लेख मात्र ही शास्त्रों में प्राप्त होता है।
इस महाप्राणध्यान साधना के साधकों के दो नाम प्राचीन ग्रंथों में विशेष रूप में प्राप्त होते हैं। उनमें से एक साधक हैं-अंतिम श्र तकेवली आचार्य भद्रबाहु और दूसरे हैं आचार्य पुष्यमित्र ।
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