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ध्यानयोग साधना २६१ और तत्त्वों आदि के साथ साधक के ज्ञान चक्षुओं के समक्ष स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं।
पदस्थ ध्यान में साधक अपनी इच्छानुसार विभिन्न मन्त्रों का जपध्यान करके चित्तवृत्तियों को स्थिर करता है।
(३) रूपस्थ ध्यान-रूपयुक्त तीर्थंकर आदि इष्टदेव का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है। इसमें साधक अरिहंत भगवान का समवसरण-स्थित रूप में ध्यान करता है और स्वयं को उसमें तल्लीन बना लेता है।
(४) रूपातीत ध्यान-इसमें साधक निरंजन, निर्विकार, सिद्ध स्वरूप का अथवा अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करता है। - यह ध्यान निरवलम्बन है। इसमें न किसी प्रकार का मन्त्र-जप होता है, न कोई अवलम्बन; साधक अपनी शुद्धात्मा के स्वरूप को स्थिर होकर जानता है, देखता है और उसी में तल्लीन होता है, आत्मा के ज्ञान-दर्शनचारित्र-सुख आदि गुणों में अपनी चित्तवृत्ति को स्थिर कर लेता है।
धर्मध्यान की फलश्रुति . धर्मध्यान की साधना से लेश्याओं की शुद्धि, वैराग्य की प्राप्ति और शुक्लध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। धर्मध्यान, शुक्लध्यान का उपायभूत ध्यान है। यह मोक्ष मन्दिर में पहुँचने की प्रथम सीढ़ी है और इसके बाद की अन्तिम सीढ़ी शुक्लध्यान है।
अतः योग-मार्ग में प्रवृत्त साधक के लिए तीनों योगों (मन, वचन, काया) की स्थिरता और मानसिक शान्ति तथा आध्यात्मिक जागृति एवं उन्नति के लिए धर्मध्यान बहुत ही उपयोगी है। साथ ही यह मुक्ति प्राप्ति की परम्पर साधना है। परम्पर साधना इस अपेक्षा से कि इसके बाद साधक शक्लध्यान की साधना करता है जो कि मुक्ति का साक्षात कारण है, और शुक्लध्यान की साधना से वह मुक्ति प्राप्त करता है।
महाप्राणध्यान साधना जैन योग और जैन योगियों की विशिष्ट ध्यान साधना पद्धति महाप्राणध्यान साधना है। यह साधना जैन परम्परा के योगियों और साधकों में ही प्रचलित थी, अन्य योग सम्प्रदायों में इस साधना पद्धति का कोई उल्लेख नहीं मिलता । अतः यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि महाप्राणध्यान साधना, जैन योग की एक विशिष्ट साधना पद्धति है।
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