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________________ २६० जन योग : सिद्धान्त और साधना स्वच्छ, शुद्ध, कर्ममल से रहित-निर्मल देखता और अनुभव करता है । वह अपनी आत्मा को अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्तिसम्पन्न अनुभव करता है । ___ इन पाँच धारणाओं' के सिद्ध हो जाने पर साधक की आत्म-शक्तियाँ जागृत हो जाती हैं, वह बाहरी विरोधी शत्तियों से अपराजेय हो जाता है । ध्यान-साधना की अपेक्षा धर्मध्यान के भेव ध्यान साधना अथवा ध्यान आलम्बन की अपेक्षा से धर्मध्यान के चार भेद बताये गये हैं-(१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ और (४) रूपातीत । हेमचन्द्राचार्य ने इन्हें आलम्बन रूप ध्येय कहा है। (१) पिण्डस्थ ध्यान-पिण्ड का अर्थ शरीर है और उसमें अवस्थित रहने वाला आत्मा है। पिण्ड यानी शरीर सहित ओत्मा का ध्यान पिण्डस्थ ध्यान है। ऊपर जो पार्थिवी आदि धारणाओं का वर्णन किया गया है वह सब पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत है। इन पाँचों धारणाओं को सिद्ध करके आत्मशक्तियों को जागृत करना, चित्तवृत्ति को एक ध्येय पर स्थिर करना पिण्डस्थ ध्यान है। . (२) पदस्थ ध्यान-यह अक्षरात्मक होता है। इसमें एकाक्षरी मन्त्र, जैसे 'ॐ' "ह" आदि का; दो अक्षरी मन्त्र, जैसे 'अहं' का तथा इसी प्रकार पैंतीस अक्षर वाले नवकार मन्त्र तथा नवपद का भी ध्यान किया जाता है। जप और जप-ध्यान में अन्तर यह है कि जप में तो मन्त्र की पुनरावृत्ति मात्र होती है और जप-ध्यान में मन्त्र का उसके रंग आदि के साथ साक्षात्कार भी किया जाता है; अर्थात् मन्त्र के अक्षर, उनके निर्धारित रंगों १ आचार्य हेमचन्द्र : योगशास्त्र ७/६-२८ २ पदस्थ मन्त्रवाक्यस्थं, पिण्डस्थ-स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थसर्वचिद्र पं, रूपातीतनिरंजनं । -योगीन्दुदेवकृत परमात्मप्रकाश की टीकागत श्लोक ३ पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ध्यान के विस्तृत वर्णन के लिए द्रष्टव्य हैं योगशास्त्र के प्रकाश संख्या ७,८,६ और दसवें प्रकाश के छठे श्लोक तक । ४ नवकार-नवपद आदि महत्त्वपूर्ण मन्त्रों की साधना का विस्तृत सांगोपांग वर्णन इसी पुस्तक के अन्तिम अध्याय में किया गया है। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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