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________________ १८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना जैन दर्शन का योग सम्बन्धी स्वतन्त्र चिन्तन सामान्यतः सभी जिज्ञासुओं, विद्वानों और यहाँ तक कि जैन विद्वानों के मस्तिष्क में प्रश्न गूंजते रहते हैं कि जैन दर्शन में 'योग' मान्य है या नहीं ? आचार्य हरिभद्र की योग सम्बन्धो रचनाओं से पहले जैन धर्म साहित्य में योग को क्या स्थिति थी ? क्या योग सम्बन्धी जैन मनीषियों तथा चिन्तकों का कोई स्वतन्त्र चिन्तन था ? इन प्रश्नों के सही समाधान को समझने के लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जानने की आवश्यकता है । वस्तुतः योग है क्या? योग एक साधना पद्धति का नाम है । भारत में प्राचीन काल में दो धार्मिक परम्पराएँ थीं-श्रमण और वैदिक । श्रमण परम्परा की ही एक शाखा बौद्ध परम्परा थी और मुख्य धारा थी जैन । इनके अतिरिक्त और भी अवान्तर परम्पराएँ थीं। इन सभी का उद्देश्य अथवा चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति था और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सभी की अपनी-अपनी साधना पद्धतियाँ थीं और उन साधना-पद्धतियों के अलग-अलग नाम थे। बौद्ध परम्परा की सोधना-पद्धति का नाम अष्टांगमार्ग था । वैदिक दर्शनों में किसी ने भक्ति को तो किसी ने ज्ञान को; और किसी ने यज्ञयाग तथा कर्मकाण्ड को मुक्ति का साधन बताया। गीता ने फलाकांक्षा रहित अनासक्त कर्मयोग को मुक्ति का पथ स्वीकार किया। सांख्यदर्शन की साधना पद्धति अष्टांग योग है, जिसका सम्पूर्ण और विस्तृत विवेचन योगदर्शन के नाम से प्रसिद्ध है। इस दृष्टि से विचार किया जाय तो जैन परम्परा की साधना-पद्धति का नाम 'रत्नत्रय' है, इसे मोक्ष मार्ग भी कहा गया है। ये तीन रत्न हैंसम्यगदर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र ।' चारित्र का ही एक अवान्तर भेद है तप और तप का एक भेद है ध्यान । साथ ही कर्मास्रवों को रोकने की प्रक्रिया को ‘संवर' द्वारा व्यक्त किया गया है। इस प्रकार जैन योग के दो मुख्य और महत्वपूर्ण सूत्र है-संवरयोग और तपोयोग । तप को पुष्ट करने और उसमें गहराई लाने के लिए बारह १ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । -तत्वार्थ सूत्र १/१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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