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योग की परिभाषा और परम्परा
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सूत्रकृतांग में भी 'जोगवं" शब्द आया है । यहाँ भी यह संयम अर्थ में et प्रयुक्त हुआ है और टीकाकार ने इसका अर्थ समाधि किया है ।
स्थानांग सूत्र में 'जोगवाही " शब्द समाधि में स्थिर अनासक्त पुरुष के लिए प्रयुक्त हुआ है ।
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इस प्रकार जैन आगमों में 'योग' शब्द अनेक स्थानों पर संयम और समाधि अर्थ में मिलता है; किन्तु इसका दूसरा सन्दर्भ भी है - मन-वचन-काय का व्यापार; इस अर्थ में भी इसका प्रयोग उत्तराध्ययन सूत्र, तत्त्वार्थ सूत्र आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है; किन्तु वहाँ मन-वचन-काय के व्यापार को रोकने की प्रेरणा दी गई है । वहाँ यह निर्देशित है कि योगों के व्यापार से आस्रव होता है और उनके निरोध से संवर, जो मुक्ति के लिए आवश्यक सोपान है ।
इस प्रकार प्राचीन जैन साहित्य में 'योग' शब्द जहाँ संयम, ध्यान एवं तप के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है वहाँ मन-वचन-काय की प्रवृत्ति के अर्थ में भी । महर्षि पतंजलि ने योग को चित्तवृत्तियों का निरोध* बताया है जिसे जैन परिभाषा में 'मनःसंवर' कहा जा सकता है ।
आचारांग सूत्र, जो सबसे प्राचीन जैन आगम है, उसमें साधु (योगी) के लिए धूत अवधूत शब्दों का प्रयोग हुआ है, वैदिक एवं बौद्ध साहित्य में स्पष्टतः ये शब्द योगी के लिए प्रयुक्त होते रहे हैं ।
इस प्रकार जैनदर्शन में योग शब्द तप, ध्यान, संवर आदि के लिए प्रयुक्त होता रहा है । उपाध्याय यशोविजयजी ने समिति और गुप्ति की साधना को भी योग का अंग माना है । (देखें पा० यो० १ / २ की वृत्ति)
१ जययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा । अणुसासणमेव पक्कम्मे, वीरेहिं सम्मं पवेदियं ॥
- सूत्रकृतांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन २, उद्देशक १, गा० ११ २ स्थानांगसूत्र, स्थान १०
३ (क) जोगपच्चवखाणेणं अजोगत्तं जणयइ ।
अजोगीणं जीवे नवं कम्मं न बंधड़ पुव्वबद्धं निज्जरेइ ||
(ख) जोगसच्चं जोगं विसोहेइ ।
(ग) मणसमाहरणाए णं एगग्गं जणयइ ।
४ तत्वार्थ सूत्र ६ / १-२; ९/१ ५ योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।
६ आचारांग १ / ६ /१८१ ।
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- उत्तराध्ययन २६ / ३८
— उत्तराध्ययन २६ / ५३
- उत्तराध्ययन २६/५८
- पातंजल योगदर्शन १/२
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