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________________ १६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना करने का प्रयास किया था, दूसरे शब्दों में प्राणायाम साधना की थी । उन्होंने स्वयं अपने शिष्य अग्गिवेसन से एक बार कहा --- मैं श्वासोच्छ्वास का निरोध करना चाहता था, इसलिए मैं मुख, नाक एवं कान (कर्ण) में से निकलते हुए साँस को रोकने का प्रयत्न करता रहा, उसके निरोध का प्रयत्न करता रहा । ' तथागत बुद्ध ने अपने अष्टांगिक मार्ग में समाधि को विशेष महत्त्व दिया । सही शब्दों में, समाधि तक पहुँचने के लिए ही बौद्धदर्शनसम्मत अष्टांग मार्ग में शेष सात अंगों का वर्णन हुआ है । समाधि को प्राप्त करने के लिए वहाँ ध्यान आवश्यक माना है । जैनदर्शन में योग भारतीय दर्शनशास्त्रों में जैनदर्शन का अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है । जैसा कि हम आगे बतायेंगे - योगविद्या के प्रथम प्रणेता आदि तीर्थंकर ऋषभदेव (हिरण्यगर्भ) हैं, अत: जैन दर्शन में भी योग का महत्त्व अत्यन्त प्राचीन काल से मान्य रहा है । जैन दर्शन में 'योग' शब्द कई सन्दर्भों में प्रयुक्त हुआ है; यथा - संयम, निर्जरा, संवर आदि के अर्थ में; तथा एक दूसरे अर्थ में भी इसका प्रयोग मिलता है, यथा - मन-वचन-काय का व्यापार अर्थात् मनोयोग, वचनयोग और काययोग | 3 उत्तराध्ययन सूत्र, जो भगवान महावीर की अन्तिम वाणी है, उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग मिलता है । जोगव उवहाणं - योगवान । तथा उसी सूत्र में यह गाथा मिलती है वहणं वहमाणस्स कंतारं अइवत्तई । जोए वहमाणस्स, संसारो अइवत्तई ॥ अर्थात् — वाहन को वहन करते हुए भी बैल जैसे अरण्य को लांघ जाता है उसी प्रकार योग को वहन करते हुए मुनि संसार रूपी अरण्य को पार कर जाता है । यहाँ 'योग' शब्द संयम साधना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । १ अंगुत्तरनिकाय ६३. २ मज्झिमनिकाय, दीघनिकाय, सामञ्ञफल सुत्त, बुद्धलीलासार संग्रह, पृष्ठ १२८; समाधिमार्ग (धर्मानन्द कोसाम्बी), पृष्ठ १५. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ११. ३ ४ उत्तराध्ययन सूत्र, २७ / २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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