SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग को परिभाषा और परम्परा १६ हावनाओं-अनुप्रेक्षाओं का विधान है, अतः भावनायोग' भी जैन योग का एक प्रमुख अंग है। संवर पाँच हैं-(१) सम्यक्त्व, (२) व्रत, (३) अप्रमाद, (४) अकषाय और (५) अयोग । ये पाँच ही साधना की भूमिकाएँ हैं । साधक उत्तरोत्तर इन भूमिकाओं पर पहुँचता है और ज्यों-ज्यों वह एक के बाद एक ऊँची अमिका को स्पर्श करता है, वह अपने लक्ष्य मोक्ष के नजदीक पहुँचता जाता है और अयोग अवस्था के बाद वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। है. जैन साधना पद्धति में तप के बारह भेद बताये गये हैं-छह बाह्य और छह अन्तरंग । अन्तरंग तपों में ध्यान एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण तप है। ध्यान ही साधक की साधना का आदि, मध्य और अन्त है ।। - इस प्रकार जैन साधना का क्रम बनता है-ध्यानयोग, तपोयोग, संवरयोग एवं भावनायोग। । यद्यपि जैन आगमों में, योगदर्शन की भाँति प्रत्याहार, धारणा आदि शब्दों का उल्लेख नहीं हुआ है। किन्तु साधना पद्धति का स्पष्ट व्यवस्थित था सूक्ष्म विवेचन अवश्य प्राप्त होता है । उसका कारण यह है कि जैन म की साधना पद्धति स्वतन्त्र है, वह योगदर्शन अथवा किसी अन्य दर्शन से भावित नहीं है, उसकी अपनो स्वतन्त्र चिन्तन प्रणाली एवं साधना विधि है, सिलिए इसकी व्यवस्था भिन्न है। आचारांग सूत्र जैन धर्म का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। उसमें जैन साधना द्धति का बहुत ही मार्मिक और सूक्ष्म प्रतिपादन है। सूत्रकृतांग सूत्र, भगती सूत्र और ठाणांग (स्थानांग) सूत्र आदि आगमों में यत्र-तत्र आसन,२ भावणाजोग सुद्धप्पा, जले नावा व आहिया। नावा व तीर सम्पन्ना, सव्वदुवखा तिउति ॥ -सूत्रकृतांग, प्रथम श्र तस्कन्ध, अध्ययन १५, गाथा ५ विभिन्न प्रकार के आसनों के वर्णन हेतु देखिए-ठाणांग, सूत्र ३९६,४६०; बृहत्कल्प सूत्र; जीवाभिगम.३,४०६; भगवती १/११; प्रश्नव्याकरण १६१; आचारांग ३१२; विपाक ४६; कल्पसूत्र; सूत्रकृतांग २,२; ज्ञाता० १/१; उत्तराध्ययन ३०/२७; औपपातिक सूत्र, दशाथ तस्कंध आदि-आदि । इन आगमों में वीरासन, उत्कटिक आसन, दण्डासन, पद्मासन, गोदोहिका आसन, हंसासन, पर्यंकासन, अर्चपर्यंकासन, लगंडासन आदि अनेक आसनों का उल्लेख प्राप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy