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२३६ जन योग : सिवान्त और साधना
(५) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थिरता आती है। (६) तृष्णा का क्षय होता है। (७) आत्म-शक्ति बढ़ती है। (८) कष्टसहिष्णुता का अभ्यास होता है।
(6) देह, पदार्थ और सांसारिक सुखों के प्रति (भेदविज्ञान द्वारा) आसक्ति क्षीण होती है।
(१०) क्रोध आदि कषायों का निग्रह होता है। (११) निद्रा विजय होती है। (१२) प्रमाद और आलस्य पर विजय प्राप्त होती है। (१३) मानसिक और शारीरिक लाघव (हल्कापन) सिद्ध होता है। (१४) सन्तोष का भाव हृदय में दृढ़ होता है। (१५) समत्व की साधना होती है। (१६) समाधियोग का स्पर्श होता है !....आदि....आदि
इस प्रकार बाह्य तपों का शरीर, मन और वृत्तियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। शरीर स्वस्थ एवं नीरोग रहता है, उसमें चुस्ती तथा फुर्ती आती है, मानसिक शक्तियों में भी वृद्धि होती है।
योग के प्रसंग में तप का वर्णन इसलिए प्रासंगिक ही नहीं अत्यावश्यक है कि 'तप' योग की ही व्यवस्थित, क्रमिक और अध्यात्ममूलक प्रक्रिया है। तपस्वी एवं योगी की भूमिका लगभग समान है। 'तप' सधने पर ही योग की योग्यता प्राप्त होती है।
बाह्य तप (१) अनशन तप : आत्म-आवरणों का शोधन
अनशन, तपोयोग की साधना का प्रथम चरण है। अशन कहते हैं आहार को और अनशन का अभिप्राय है आहार का त्याग, आहार का विसजन । तपोयोगी सर्वप्रथम, साधना के प्रथम चरण में आहार का त्याग करता है।
अनाहार का दूसरा नाम है उपवास । उपवास का अध्यात्मपरक अभिप्राय है-आत्मा के समीप रहना। तपोयोगी साधक आहार का त्याग करके, भोजन सम्बन्धी क्रियाओं को छोड़कर सारा समय आत्म-चिन्तन-मनन में व्यतीत करता है।
___ उपवास से साधक को शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से भी बहुत लाभ होते हैं।
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