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________________ (१) बाह्य तप का प्रभाव शरीर पर अधिक पड़ता है । (२) ये तप बाहर दिखाई देते हैं । (३) इनका सम्बन्ध अशन, पान, आसन, आदि बाहरी द्रव्यों से होता है। बाह्य तप: बाह्य आवरण-शुद्धि साधना | २३५ (४) साधारण व्यक्ति बाह्य तप को तप के रूप में स्वीकार करता है । (५) ये बाह्य तप मुक्ति के बहिरंग कारण बन सकते हैं । बाह्य तप भी निरर्थक नहीं यह सत्य है कि जैन तपोयोग की आधारभूमि आध्यात्मिक है । बाह्य तपों का प्रमुख सम्बन्ध बाहरी द्रव्यों से होता है, वे बाहर दिखाई देते हैं; किन्तु इसका यह अर्थ समझना भूल होगी कि आध्यात्मिक विकास में इनका कोई स्थान ही नहीं है । साधक के जीवन में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । कोई व्यक्ति घी को पिघलाना चाहता है, तो वह किसी बर्तन में रख कर ही घी को पिघला सकता है । यदि वह सीधा आग में घी को डाल देगा तो घी जल जायगा, आग भी लग सकती है । घी को शुद्ध करने में, पिघलाने में, उसके मैल को दूर करने में जो महत्त्व बर्तन का है, बर्तन को गरम करने का है। वही महत्त्व साधक को आत्मशुद्धि में बाह्य तप का । जिस प्रकार मुक्ति की साधना औदारिक अथवा स्थूल शरीर से हो की जा सकती है, उसी प्रकार आभ्यन्तर तपों की साधना भी बाह्य तपों की साधना से की जा सकती है । बाह्य तप, आभ्यतर तपों में सहायक हैं, आधारभूमिका हैं । अतः आध्यात्मिक साधना में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । साथ ही यह भी सत्य है कि बाह्य तपोसाधना से साधक को अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक लाभ होते हैं । बाह्य तप के लाभ आचार्य शिवकोटि ने मूलाराधना' में बाह्य तप के कई लाभ बताये हैं, उनमें से प्रमुख हैं (१) काय की संलेखना होती है । (२) आत्मा में संवेग जागता है । (३) इन्द्रियों का दमन होता है । (४) विषयों के प्रति आसक्ति घटती है । १ मूलाराधना ३ / २३७-२४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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