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शुक्लध्यान एवं समाधियोग
३०६ इसी गुणस्थान में साधक ग्रन्थिभेद करता है और वह शुक्लध्यान के प्रथम भेद पृथक्त्ववितर्क सविचार ध्यान की साधना में प्रविष्ट होता है ।
ग्रन्थिभेद के पश्चात् वृत्तियों का संक्षय करता हुआ साधक गुणस्थान क्रमारोह करके बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान में पहुँचता है । वहाँ वह शुक्लध्यान के दूसरे भेद एकत्ववितर्क अविचार ध्यान की साधना में तल्लीन रहता है । उसको चित्तवृत्तियाँ इतनी निश्चल और ध्यान इतना स्थिर हो जाता है कि वह एक ध्येय पर ही निर्वात दीपशिखा के समान निष्कंप - स्थिर रहता है ।
इस प्रकार शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों (पृथक्त्ववितर्क सविचार और एकत्ववितर्क अविचार) में पातंजलयोग वर्णित सम्प्रज्ञात समाधि का समावेश हो जाता है ।
इसका कारण यह है कि सम्प्रज्ञात योग-समाधि सवितर्क-विचारआनन्द अस्मिता निर्भास रूप ही हैं, अतः वह पर्यायान्तर रहित शुद्ध द्रव्य विषयक शुक्लध्यान में अर्थात् शुक्लध्यान के दूसरे भेद एकत्ववितर्क अविचार ध्यान में समाविष्ट हो जाती है ।
इसके उपरान्त असम्प्रज्ञात समाधि के प्रथम भेद का समावेश सयोगकेवली अवस्था में हो जाता है ।
महर्षि पतंजलि ने जो असम्प्रज्ञात समाधि को संस्कारशेष' कहा है; उसे जैन दर्शन को दृष्टि से भवोपग्राही कर्मों की अपेक्षा से समझना चाहिए ।
- पातंजल योगसूत्र १/१८ सर्ववृत्तिप्रत्यस्तसमये संस्कारशेषो निरोधश्चित्तस्य समाधिरसम्प्रज्ञातः ।
-व्यास भाष्य
१ विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ।
अर्थात् सर्ववृत्तिनिरोध के कारण पर वैराग्य के अभ्यास से संस्कारशेष चित्त की स्थिरता का नाम असम्प्रज्ञात समाधि है - तात्पर्य यह है कि असम्प्रज्ञात समाधि में निरुद्धचित्त की समस्त वृत्तियों का लय हो जाने से मात्र संस्कार शेष रह जाता है ।
२ आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय – ये चार कर्म भवोपग्राही कहलाते हैं; क्योंकि ये आत्मा को उसी शरीर में अथवा उसी जन्म में टिकाये रखते हैं । इनके नाश होने पर ही कैवल्य प्राप्त आत्मा को निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
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