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________________ ३७० जैन योग : सिद्धान्त और साधना का निदान न हुआ। इतना समय और श्रम अकारथ ही चला गया। और उनकी श्रद्धा डगमगा जाती है, हृदय चंचल हो उठता है, शंकाशील बन जाता है। अतः साधक के लिए यह जानना आवश्यक है कि मंत्र के साक्षात्कार का अर्थ क्या है और मंत्रसिद्धि क्या है ? साधक में कौन-कौन से लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, जिनसे उसे मंत्रसिद्धि का विश्वास हो सके। ____ मंत्र साक्षात्कार, मंत्र-जप के कई सोपान पार करने के बाद होता है। प्रथम सोपान में ध्याता अथवा साधक और मंत्र के शब्दों का भेद संबंध होता है, यानी साधक अपने को साधना करने वाला मानता है और मंत्र के पदों को ध्येय; अर्थात् इस सोपान में मंत्र-पद और साधक के मध्य भिन्नता की स्थिति रहती है। __ इसके उपरान्त साधक दूसरे सोपान पर चढ़ता है। वहाँ उसकी अन्तश्चेतना का मंत्र के अक्षरों-पदों के साथ तादात्म्य (एकत्व-सम्बन्ध) स्थापित हो जाता है, अभेद दशा की प्राप्ति हो जाती है। तीसरे सोपान में स्थूल शब्दों (जल्प) का जप भी नहीं होता, तब सविकल्प अवस्था प्राप्त हो जाती है। . चौथे सोपान में मंत्र के अर्थ और गूढ़ रहस्य का साक्षात्कार हो जाता है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि तात्त्विक दृष्टि से महामंत्र निर्विकल्पात्मक होता है। अतः मन को निर्विकल्प स्थिति पर पहुँचने पर ही मंत्र का साक्षात्कार होता है। मंत्रसिद्धि के लक्षण जो साधक में प्रगट होते हैं वे आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक रूप से तीन प्रकार के हैं। आध्यात्मिक लक्षण -(१) ध्येय के प्रति तीव्र निष्ठा उत्पन्न होने पर साधक के संकल्प-विकल्प शांत हो जाते हैं। (२) उसके अहं भाव का विसर्जन हो जाता है 'अर्ह' अथवा 'अर्हत्' भाव विकसित होने लगता है। (३) कषायों की अल्पता तथा तरतम क्षीणता होने से ममत्वभाव का व्युत्सर्ग होता है और उसके स्थान पर समत्व भाव प्रतिष्ठित होता है । मानसिक लक्षण-(१) साधक को आन्तरिक शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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