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________________ मन्त्र - शक्ति - जागरण (२) साधक के चित्त में सहज आन्तरिक प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता व्याप्त हो जाती है । यह प्रफुल्लता चित्त की निर्मलता का परिणाम होती है । (३) साधक में संतोष भावना सहजरूप में दृढ़ हो जाती है । इच्छित पदार्थों की उपलब्धि न होने पर भी चित्त विक्षेपरहित तथा संतुष्ट रहता है । वस्तुतः यह संतुष्टि अथवा मानसिक तोष इच्छाओं के अभाव का परिणाम होता है । मन में संतोष इतना व्याप्त हो जाता है कि साधक की चाह ही मिट जाती है । ३७१ शारीरिक लक्षण – - (१) ज्योतिदर्शन - साधक को मस्तक और ललाट में मंत्र जाप के समय ज्योति अथवा प्रकाश दिखाई देने लगता है । (२) तैजस् शरीर बलशाली होने से आभामंडल विकसित हो जाता है, परिणामस्वरूप साधक का स्थूल शरीर भी तेजोदीप्त हो जाता है | शरीर, मस्तक, ललाट पर तेज झलकने लगता है । साथ ही शरीर पुलकित एवं प्रफुल्लित रहता है । (३) साधक की इच्छा-शक्ति विकसित हो जाती है । यह इच्छा - शक्ति अथवा संकल्प शक्ति सभी कार्यों में सफलता की कुञ्जी है | (४) साधक के लिए सारे भौतिक एवं पौद्गलिक पदार्थ अनुकूल हो जाते हैं । इन लक्षणों से साधक स्वयं अनुभव कर सकता है कि उसे मंत्र - सिद्धि हुई अथवा नहीं। यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मंत्र सिद्धि का अभिप्राय किसी चमत्कारी सिद्धि से नहीं है, अपितु मंत्र की सफलता या जो साधना वह कर रहा है उसमें परिपक्वता से है । मंत्र की सफलता का मूल सूत्र है कि साधक मंत्र के अक्षरों की साधना करता हुआ, पदों पर पहुँचे और पदों से आगे बढ़कर उन पदों में नियोजित अपनी चैतन्यधारा को स्थूल शरीर की सीमा को पारकर सूक्ष्म अथवा शरीर (प्राण शरीर) में पहुँचा दे, प्राण शरीर को उद्दीप्त कर दे । मंत्र में नियोजित साधक की चैतन्यधारा जब तैजस् शरीर तक पहुँच जाती है, उसे उद्दीप्त कर देती है तब तैजस् शरीर से शक्तिशाली प्राणधारा बहने लगती है । उस प्राणधारा से संयुक्त होकर मंत्र शक्तिशाली बन जाता है। सही शब्दों में, साधक को जो चैतन्यधारा मंत्र के शब्दों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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