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________________ ( २५ ) गया है [ उसका दिग्दर्शन अन्यत्र इसी ग्रन्थ में कराया जावेगा ] | एवं इस त्यागप्रधान जैन धर्म के प्रचारक - भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीरस्वामी पर्यन्त तीर्थंकर नाम से प्रसिद्ध जितने भी महापुरुष हुए हैं वे सब परम त्यागी, परमतपस्वी, परम निर्मोही, परम ज्ञानी अतएव परम योगी थे । योग की उत्कृष्ट साधना द्वारा ही उन्होंने आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठारूप कैवल्य विभूति और स्वरूपप्रतिष्ठा का सम्पादन किया । गृह त्याग के पश्चात् बारह वर्ष से कुछ अधिक समय तक ध्यान -- समाधिरूप इस योगानुष्ठान - से ही चरम तीर्थंकर भगवान् महावीरस्वामी अहं द्— जगत्पूज्य, जिन - रागद्रष-विजेता, केवली - सर्वज्ञ - सर्वदर्शी और तीर्थंकरधर्मप्रवर्तक बने । आचार्य श्री हरिभद्रसूरि के वचनों में योग, सर्वश्र ेष्ठ कल्प वृक्ष, चिन्तामणि- रत्न, सर्व धर्मों में प्रधान और सिद्धिरूप मोक्ष का सुदृढ़ सोपान है । वास्तव में योग ही भयंकर भवरोग के समूलघात की रामबाण औषधि है । योग - शब्दार्थ शब्द-शास्त्र के नियमानुसार युज् धातु से घञ प्रत्यय के द्वारा योग शब्द निष्पन्न होता है । युज् नाम के दो धातु हैं - एक समाध्यर्थंकर दूसरा संयोगार्थक 3, अतः योग शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य - (युक्तिः, योजनं युज्यते इति वा योगः ) समाध और संयोग ये दो अर्थ फलित होते हैं । इन दोनों ही अर्थों में योग शब्द प्रयुक्त किया देखा जाता है । समाधि अर्थ में वह साध्यरूप से निर्दिष्ट है और संयोग अर्थ में उसका साधनरूप से परिचय मिलता है। कारण कि समाधि अर्थात् आत्मा की विक्षेपरहित समभाव परिणतिरूप समाहित अवस्था में चित्त की विशिष्ट प्रकार की एकाग्रता अपेक्षित है, जो कि ध्यान-साध्य है और ध्यान-संयोग के बिना दुर्घट है । तात्पर्य कि समाधि के लिये अपेक्षित मानसिक स्थिरता की प्राप्ति प्रशस्त ध्यान के बिना नहीं हो सकती है और ध्यान में ध्येय वस्तु के साथ ध्याता के मन का सम्बन्ध भी अनिवार्य है, इसलिए समाधि के साधनभूत प्रशस्त ध्यान के सम्पादनार्थं ध्येय और ध्याता का परस्पर में संयुक्त होना - सम्बद्ध होना - संयोगरूप योग मे ही हो सकता है । योग के व्युत्पादन में उसके ध्यान और समाधि ये दो अर्थ फलित होते हैं । १. ' योगः कल्पतरुः श्र ेष्ठो, योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणं, योग: सिद्ध: स्वयं ग्रहः' || ( योगबिन्दु, श्लो० ३७ ) २. युज समाधीः । ३. युजिर्योगे । ४. ( क ) योग: समाधिः, सोऽस्यास्ति इति योगवान् । ( उत्तराध्ययन सूत्र बृहद्वृत्ति ११ / १४ ) (ख) युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति योग: Jain Education International (ध्यानशतक की वृत्ति में श्री हरिभद्रसूरि ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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