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( २६ ') इनका निर्देश ध्यान-योग और समाधि-योग के नाम से किया जा सकता है । ध्यानयोग में प्रणिधानरूप मनःसमिति से चित्त की एकाग्रता का सम्पादन होता है और समाधि-योग में मनोगुप्ति के द्वारा उसकी स्थिरता सम्पन्न होती है-चित्त का निरोध सम्पन्न होता है; तत्पर्य कि मानसिक एकाग्रता ही व्यक्त होती है । संक्षेप में कहें तो चित्त की एकाग्रता परिणति-ध्यान और स्थिरता परिणाम-समाधि है। इस प्रकार इन दोनों का साध्य-साधनभाव कल्पित होता है । परन्तु इनके स्वरूप के विषय में कुछ अधिक परामर्श किया जाय तो इनकी --ध्यान-समाधि की-साध्य-साधनभेद से विभेद-कल्पना कुछ वास्तविक प्रतीत नहीं होती । वास्तव में तो समाधि, यह ध्यान की परिपक्कता अथच ध्यानाभ्यास से प्राप्त होने वाला चित्तवृत्ति का अस्पन्दनमात्र ही है । जैनसंकेतानुसार तो शुक्ल-ध्यान के पादचतुष्टय में ही समाधि का तिरोधान हो जाता है अतः समाधि, यह ध्यान की अवस्था विशेष ही है। सारांश कि समाध्यर्थक युज धातु से निष्पन्न योगार्थ में समाधि और ध्यान ये दोनों ही गभित हो जाते हैं।
अब रहा संयोगार्थक योग शब्द, सो उसमें योग के वे समस्त साधन निर्दिष्ट हैं. जिनकी साधक को अपने अन्दर ध्यान अथवा समाधि की योग्यता प्राप्त करने के लिये आवश्यकता होती है । वे सभी आध्यात्मिक शास्त्र की योग-प्रणाली में सब साधन-योग या क्रिया-योग के नाम से अभिहित किये गये हैं। इस प्रक्रिया के अनुसार साध्य-साधनरूप में योग के समाधि और योग संयोग ये ही दो अर्थ फलित होते हैं। इनमें समाधि साध्य और योग साधन है। इस प्रकार योग और समाधि का पारस्परिक साध्य-साधनभाव संकलित होता है।
__यहां पर इतना ध्यान रहे कि समाधि में जो साध्यत्व का निर्देश है वह सापेक्ष-अपेक्षाजन्य है, अर्थात् समाधि के उपायभूत यम-नियमादि की अपेक्षा से उसको साध्य कहा है और परमसाध्य मोक्ष की दृष्टि से तो वह भी मोक्ष का अन्तरंग साधन होने से साधन-कोटि में ही परिगणित है । इस परिस्थिति में संयोग और समाधि इन दोनों अर्थों में प्रतिबिम्बित होने वाले योग शब्द का निम्नलिखित अर्थ निष्पन्न होता है जिसके द्वारा आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सके
और जो आत्मा को उसके परम साध्य के साथ संयुक्त करके जोड़ दे, उसका नाम योग है। योग के इन दोनों मौलिक अर्थों में निसर्गत: मोक्ष-साधक धर्मानुष्ठान का ही निर्देश प्राप्त होता है। अतः मोक्ष-प्रापक समिति-गुप्ति' आदि साधारण जो आत्मा का धर्म व्यापार है वही इमी प्रकृत योगार्थ में भासित होता है। १. तदेतद ध्यानमेव चाभ्यस्यमानं कालक्रमेण परिपाफदशापन्नं समाधिरित्य
भिधीयते—'ध्यानादस्पन्दनं बुद्धः समाधिर भिधीयते' इति स्कन्धाचार्योक्तिः ।
(पातञ्जलयोगदर्शन की टिप्पणी में स्वामी बालकराम) २. 'समितिगुप्तिसाधारणधर्मव्यापारत्वमेव योगत्वम्' । (पातंजल योगदर्शन, सूत्र
१/२ की वृत्ति, उपाध्याय यशोविजयजी)
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