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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
मिले रहते हैं; अथवा यों कहें कि तिलों में तेल रहता है उसी प्रकार स्थूल भावों के अन्दर सूक्ष्म भाव भी निहित रहते हैं । इन सूक्ष्मभावों को स्थूल भावों से पृथक् करने के लिए क्रिया विशेष की आवश्यकता होती है । इस पृथक्करण क्रिया का नाम ही वियोग है ।
वियोग का अर्थ विवेक होता है । सांख्यदर्शन द्वारा अनुमोदित साधन प्रणाली इसी वियोग अथवा विवेक की ओर संकेत करती है । वेदान्त में जो पंचकोष (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोष) विवेक है वह भी यह वियोग मार्ग ही है ।
सांख्यदर्शन के अनुसार योग का लक्ष्य है होकर शुद्ध रूप में स्थिर होना और जैन दर्शन के से मुक्त होकर स्वभाव में स्थिर होना । यही गमन है ।
'पुरुष' का प्रकृति से वियोग अनुसार विभाव (विकारों) योग से वियोग की ओर
साधक इस वियोग मार्ग का अवलम्बन लेता हुआ, सूक्ष्म की ओर उन्मुख होता है और सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम स्थिति में पहुँच जाता है । योगी को जो स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म शरीर द्वारा इधर-उधर भ्रमण की शक्ति प्राप्त होती है, वह इस वियोग के अवलम्बन के फलस्वरूप ही होती है ।
जब योगी सूक्ष्मतम स्थिति से भी और गहराई में पहुँच जाता है तो वह अयोग अवस्था में पहुँच जाता है । वहाँ वह आत्ममय हो जाता है, स्थूल और सूक्ष्म शरीर से भी अतीत हो जाता है । इस अवस्था को देहातीत अवस्था कहते हैं । इसका अभिप्राय यह नहीं है कि योगी के देह रहती ही नहीं है, वरन् इसका अभिप्राय यह है कि स्थूल और सूक्ष्म शरीर से जो उसकी सम्बद्धता थी, वह संयोग मात्र रह जाता है । वह देह के प्रति निर्मम (मोह रहित) हो जाता है । यहो अयोग दशा है । ऐसा योगो पूर्ण रूप से निर्लिप्त और जीवन्मुक्त होता हैं ।
जैन दर्शन के अनुसार योग साधक की यह अन्तिम स्थिति है और मुक्ति से पूर्व की । चतुदर्श गुणस्थानों में अन्तिम गुणस्थान 'अयोग गुणस्थान हैं' । भारतीयेतर दर्शनों में योग
इसी प्रकार योग के संकेत जरथुस्त और ईसाई धर्म में भी प्राप्त होते हैं, यद्यपि इन धर्मों के ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से योग और यौगिक क्रियाओं का वर्णन नहीं हुआ किन्तु भगवत् भक्ति, आत्मस्वरूप का ज्ञान करने और सेवा आदि की प्रेरणा तो दी ही गई है और इस रूप में यह मानना उचित होगा कि ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग के संकेत इन धर्मों में भी हैं ।
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