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________________ २६४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना णायाधम्मकहाओ' में तीर्थंकर गोत्र बन्ध के जो २० कारण बताये हैं, उनमें से आठ वैयावृत्य से संबंधित है-अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, ज्ञानी, तपस्वी को भक्ति और संघ को समाधि पहुँचाना । ___ तपोयोग की दृष्टि से यहाँ 'भक्ति' या 'वल्लभता' शब्द का अर्थ तल्लीनता है। भक्तियोग की साधना में भी भक्त अपने इष्टदेव के प्रति तन्मय हो जाता है, अपना स्वयं का भान भूल जाता है। यही बात वैयावृत्य तप के बारे में लागू होती है। तपोयोगो साधक वैयावृत्य करते समय उसी में तल्लीन और तन्मय हो जाता है । - स्थानांग, भगवती, औपपातिक आदि आगमों में वैयावृत्य तप के दस भेद बताए हैं-(१) आचार्य (२) उपाध्याय (३) स्थविर, (४) तपस्वी, (५) रोगी, (६) नवदीक्षित मुनि (७) कुल, (८) गण (९) संघ, (१०) सार्मिक की सेवा भक्ति एवं वैयावृत्य करना। तपोयोगी साधक इन सबकी वैयावृत्य करके महान कर्म निर्जरा करता है। (४) स्वाध्याय ता : स्वात्मसंवेदन ज्ञान की साधना आचार्य अभयदेव ने स्वाध्याय शब्द का निर्वचन करते हुए इसका लक्षण दिया है-" 'सु'-सुष्छु, भलीभांति, 'आङ'-मर्यादा के साथ अध्ययन को स्वाध्याय कहा जाता है । आवश्यकसूत्र में श्रेष्ठ अध्ययन को स्वाध्याय कहा है। कुछ विद्वानों ने स्वाध्याय का लक्षण इस प्रकार भी दिया है'स्वयमध्ययनं स्वाध्यायः' अन्य किसी को सहायता बिना अध्ययन करना और अध्ययन किये हुए विषय का मनन एवं निदिध्यासन करना। स्वस्यास्मनोऽध्ययनम्-अपनी आत्मा का अध्ययन करना। स्पेन स्वस्य अध्ययनंस्वाध्याय :-स्वयं द्वारा स्वयं का अध्ययन करना।" mr. १ णायाधम्मकहाओ, अज्झयण ८, सुत्त १४ २ स्थानांग, स्थान १० ३ भगवती, २५/७ ४ औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० ५ स्थानांग २/२३० ६ अध्ययन अध्यायः शोभनो अध्यायः स्वाध्यायः । ७ जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पष्ठ ५८५ -आवश्यक सूत्र ४ अ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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