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________________ ४ जयणायोग साधना (मातृयोग) - जयणायोग, जैनयोग का एक विशिष्ट योग है। इसमें न प्राणायाम की विशिष्ट क्रियाओं की आवश्यकता होती है और न आसनसिद्धि पर ही अधिक बल प्रदान किया जाता है। साधक इस योग की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही अवस्थाओं में साधना कर सकता है । इस साधना में सतत जागरूकता अपेक्षित है। साधक असद् प्रवृत्तियों से स्वयं को बचाता हुआ यतनाशील या सावधान रहे, सहज समाधिपूर्वक जीवन यात्रा सम्पन्न करे, इसीलिए इसे जयणायोग अथवा सहजयोग की संज्ञा से अभिहित किया गया है। सहजयोग में मन-वचन-काय-इन तीनों योगों को वश में करके इन्हें शुभ एवं शुद्ध प्रवृत्तियों में लगाया जाता है, तथा साधक हर समय-प्रवृत्ति करते समय भी सावधान रहता है । वह अपनी सम्पूर्ण क्रियाएँ यतनापूर्वक करता है । प्रवृत्ति करते समय उसका मूल मन्त्र होता है जयं चरे, जयं चिठे, जयमासे, जयं सये । जयं भुजतो भासन्तो, पावकम्मं न बंधई ॥ यतनापूर्वक चलने, बैठने, सोने, खाने आदि सभी क्रियाएँ करते हुए साधक को पाप कर्म का बंध नहीं होता है । यतना का ही दूसरा नाम समिति है और मन-वचन-काय को वश में रखना गुप्ति है, अतः सहजयोग समिति-गुप्ति-अष्ट प्रवचन माता रूप होता है। यद्यपि इन अष्ट प्रवचन माताओं की पूर्ण रूप से सफल साधना तो श्रमण साधक ही कर पाता है। किन्तु गृहस्थ साधक भी अपनी योग्यता, क्षमता और परिस्थिति के अनुसार इनका पालन करने का प्रयत्न करता है। अष्ट प्रवचन माता में तीन गुप्ति (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति) तथा पाँच समिति (ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान-निक्षेपण समिति और परिष्ठापनिका समिति) का समावेश होता हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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