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१६० जैन योग : सिद्धान्त और साधना
परीषह (C) चर्या परीषह (१०) निषद्या परोषह (११) शय्या परीषह (१२) आक्रोश परीषह (१३) वध परीषह (१४) याचना परीषह (१५) अलाभ परीषह (१६) रोग परीषह (१७) तृण-स्पर्श परीषह (१८) जल्ल परीषह (१६) -सत्कार - पुरस्कार परोषह ( २० ) प्रज्ञा परीषह (२१) अज्ञान परीषह और (२२) दर्शन परीषह ।
यों तो प्राणीमात्र का जीवन संघर्षों की कहानी है, सुख-दुःख का चित्रपट है किन्तु मानव-जीवन तो संघर्षों में ही पलता है, उसमें भी साधक, और विशेष रूप से गृहत्यागी साधक - श्रमण का जीवन बहुत ही विघ्नधाओं से भरा होता है । पग-पग पर उसके समक्ष कठिनाइयाँ आती हैं । उन कठिनाइयों को वह हँसते - मुसकराते समभावपूर्वक सहन करता है । इसी - लिए तो श्रमणचर्या खांडे की धार पर चलने के समान हैं ।
साधक ( श्रमण) क्षुधा शान्ति के लिए न तो वृक्ष से फल आदि तोड़ता है और तुड़वाता है तथा न भोजन पकाता है और न अपने लिए पकवाता ही है; जब तक शुद्ध प्रासुक- एषणीय आहार उसे नहीं मिल जाता तब तक वह क्षुधा परीषह को समभाव से सहता है ।
इसी प्रकार वह कंठ में प्राण आने पर भी सचित्त जल ग्रहण नहीं करता । समभाव से प्यास को सहता है ।
सनसनाती शीत में भी वह शरीर को गर्म करने की इच्छा नहीं करता और न ही भीष्म ग्रीष्म में स्नान, व्यजन ( पंखे से हवा करना) आदि शीतलतादायक उपायों की ही इच्छा करता है । वह समभावपूर्वक शीत और गर्मी की पीड़ा को सहन करता है ।
साधक अटवी में, वृक्ष मूल में अथवा कन्दरा में ध्यानस्थ होता है तो वहाँ उसे दंश-मशक पीड़ा पहुँचाते हैं, वज्रमुखी चींटियाँ उसके शरीर को छलनी कर देती है; फिर भी वह उनके प्रति तनिक भी द्व ेष भाव नहीं लाता यहाँ तक कि वह उन्हें उड़ाता भी नहीं । उनके द्वारा दी गई पीड़ा को वह समभाव से सहता है ।
यदि साधक के वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जायें तो भी वह नये वस्त्रों की इच्छा नहीं करता । यदि उसे अल्प मूल्य वाले वस्त्र मिलें तो खेद नहीं
१ क्षुधा पर विजय प्राप्त करने के लिए साधक अनशन, ऊनोदरी आदि विभिन्न प्रकार के तप भी करता है; जिनका वर्णन 'तपोयोग' में किया जायेगा ।
— संपादक
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