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प्रेक्षाध्यान-योग साधना २०१ अभिप्राय संप्रेक्षा शब्द से अपेक्षित है, वही प्रेक्षा शब्द से लिया जाता है। दूसरे शब्दों में संप्रेक्षाध्यान-योग' हो प्रेक्षाध्यान-योग है।
चेतना अथवा आत्मा का मूल लक्षण उपयोग है। उपयोग के दो रूप हैं -(१) दर्शनोपयोग और (२) ज्ञानोपयोग । दर्शन यानी देखना और ज्ञान यानी जानना । अतः देखना और जानना आत्मा का स्वभाव है। किन्तु काँ से आवृत होने के कारण आत्मा की यह देखने-जानने की क्षमता में क्षीणता आ जाती है । अतः उस क्षमता को-आत्मा के स्वभाव को विकसित करने लिए भगवान ने साधक को सूत्र दिया-देखो और जानो। आत्मा को, आत्मा से, आत्ममय देखो। स्थूल चेतना से सूक्ष्म चेतना को देखो। स्थल मन से सूक्ष्म मन को देखो; इसके प्रकंपनों को देखो। स्थल शरीर को देखो, उसमें होते हए प्रकंपनों-परिवर्तनों को देखो। तैजस शरीर और इसके प्रकंपनों को देखो, शक्ति केन्द्रों, मर्मस्थानों और चक्रस्थानों को देखो। कषायों के आवेगों-संवेगों को देखो। आदि..."आदि.."
देखना मूल तत्त्व है। इसीलिए इसे प्रेक्षाध्यान (संप्रेक्षाध्यान) कहा गया है।
प्रेक्षाध्यान आगमवर्णित धर्मध्यान के भेद-विचयध्यान का ही एक प्रकार है।
प्रेक्षाध्यान का सूत्र प्रेक्षाध्यान का प्रमुख सूत्र है-सिर्फ देखना । देखना, सिर्फ देखना हो। उस समय मन में न किसी प्रकार के विचार आवें और न संकल्प-विकल्प ही उठे । न राग-द्वेष का अंश हो, न किसी प्रकार की आशा-अभिलाषा। देखने में आत्मा तल्लीन हो जाये।
__जिस समय आत्मा सिर्फ देखता है, उस समय वह विचार नहीं कर सकता । संकल्प विकल्प, राग-द्वेष आदि कोई भी प्रवृत्ति नहीं होती और यदि किसी भी प्रकार की मन की प्रवृत्ति होती है तो प्रेक्षा नहीं होगी, देखने का क्रम टूट जायगा। १ (क) संप्रेक्षा अथवा प्रक्षाध्यान ही बौद्ध दर्शन का विपश्यना ध्यान है । उसकी
क्रिया-प्रक्रिया भी प्रेक्षा ध्यान के समान ही है। (ख) द्रष्टुटुंगात्मता मुक्तिदृश्य कात्म्यं भवभ्रमः ।
-अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानयोग; श्लोक ५ २ उपयोगो लक्षणं ।
__ -तत्त्वार्थसूत्र २८
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