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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
देखना, विचारों के क्रम और सिलसिले को तोड़ने का - निर्विचार स्थिति लाने का अचूक और अमोघ साधन है । यह कल्पना के जाल को, भूत काल के भोगे हुए भोगों की स्मृति को और भविष्य की आशाओं-आकांक्षाओं को तोड़ने का प्रबल साधन है ।
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साधक जब किसी बाह्य वस्तु को अनिमेष दृष्टि से देखता है तो उसके विकल्प समाप्त हो जाते हैं, विचारशून्यता की स्थिति आ जाती है ।
साधक पहले अपने स्थूल शरीर को देखता है, उसमें होने वाले प्रकंपनों को देखता है और फिर तैजस् और सूक्ष्म शरीर तथा वहाँ होने वाली हलचलों को देखता है, इस प्रकार उसकी प्रेक्षा गहन से गहनतर होती चली जाती है । प्रेक्षा में सिर्फ चैतन्य - सत्ता अथवा चेतना ही सक्रिय होनी चाहिए । यदि उसमें राग-द्वेष, रति-अरति, प्रियता - अप्रियता का भाव आ जाए तो वह देखना नहीं रहता ।
जैसे दर्शन के पश्चात् ज्ञान का क्रम है । यही देखने-जानने का क्रम है । दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है । ज्यों-ज्यों साधक देखता जाता है त्यों-त्यों वह जानता भी जाता है । मन और इन्द्रियों के संवेदन से परे सिफ चेतना द्वारा ही देखना और जानना - चैतन्य का उपयोग है और यह साधक का चरम लक्ष्य है; क्योंकि केवली भगवान भी सिर्फ चैतन्य उपयोग के द्वारा ही देखते और जानते हैं ।
ग्रन्थों में देखने और जानने के लिए नेत्रों का उदाहरण दिया गया है । छद्मस्थ प्राणी नेत्रों से ही देखता - जानता है । चक्षु इन्द्रिय सामने आने वाले विभिन्न प्रकार के दृश्यों को देखती है, जानती है; किन्तु दर्पण के समान उस पर कोई संस्कार नहीं पड़ते । न वह उन दृश्यों का निर्माण करती है, न रागद्वेष करती है और इसीलिए वह उनका फल भोग भी नहीं करती । अतः चक्षु अकारक और अवेदक है ।
इसी प्रकार ज्ञानी साधक जब प्रेक्षाध्यान में गहरा उतरता है, किसी वस्तु को देखता है तो वह भी अकारक होता है, वह न कर्मों का आस्रव करता है, न उसको कर्मबन्ध होता है, न विपाक प्राप्त कर्मों के फल का वेदन ही वह करता है और न उन कर्मों से उसका तादात्म्य ही स्थापित होता है ।
साधक जब देखने-जानने- प्रेक्षाध्यान का अभ्यस्त हो जाता है तो
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