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जैम योग : सिद्धान्त और साधना
(२) आग्नेयी धारणा, (३) वायवी धारणा, (४) वारुणी धारणा और (५) तत्त्वरूपवती धारणा ।' इनका स्वरूप इस प्रकार है
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(१) पार्थिवी धारणा - किसी भी आसन से बैठकर साधक मेरुदण्ड को सीधा रखता है और फिर नासाग्र पर दृष्टि को जमाकर अथवा आँखें बन्द करके कल्पना द्वारा इस चित्र को स्पष्ट सामने लाता है— मध्यलोक के समान विशाल और गोल आकृति का एक क्षीर सागर है, जिसमें दूध के समान सफेद जल भरा है । सागर में हल्की-हल्की सहज तरंगें उठ रही हैं । उसके मध्य में स्वर्ण के समान पीले रंग का चमकता हुआ हजार पंखुड़ियों का एक कमल है। कमल की कणिका मेरु पर्वत के समान उत्तंग है । उसके सर्वोच्च शिखर पर अर्द्धचन्द्राकार पांडुकशिला पर धवल श्वेत वर्ण का सिंहासन है । उस सिंहासन पर मेरा आत्मा ( मैं स्वयं) आसीन है । कमल की कणिका और पंखुड़ियों से पद्मराग (पीला रंग ) बिखर कर चारों ओर फैल रहा है और उसने समस्त दिशा - विदिशाओं को पीला कर दिया है ।
यह सम्पूर्ण कल्पना चलचित्र के चित्रों के समान साधक के दृष्टि-पथ पर साकार होती है और वह पृथ्वी के बीज 'हं' 'सोऽहं का जप ध्यान करता रहता है ।
इस प्रकार की धारणा से साधक का मन ध्येय में बँध जाता है, स्थिर हो जाता है ।
वह पार्थिवी धारणा का स्वरूप है ।
(२) आग्नेयी धारणा - पार्थिवी धारणा के पश्चात् साधक आग्नेयी धारणा की साधना करता है ।
साधक पांडुकशिला स्थित सिंहासन पर विराजमान अपने आत्मा का चिन्तन करने के बाद, अपने नाभि-स्थान में सोलह पंखुड़ियों वाले एक कमल की रचना करता है, उन सोलह पंखुड़ियों पर सोलह मातृ का वर्ण (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ,ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः) की स्थापना करता है तथा मध्य कर्णिका पर देदीप्यमान अग्नि के समान 'ह' या 'अहं' अक्षर की स्थापना करता है । तदुपरान्त हृदय स्थान पर धूम्र वर्ण के एक उल्टे लटके ( अधोमुख) अष्टदल कमल की कल्पना करता है, जिसकी आठों पंखुड़ियों पर अष्ट कर्म (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और
१ हेमचन्द्राचार्य – योगशास्त्र ७ / १
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