________________
ज्यानसोन साधना
२८७
किन्तु ध्यानयोग की भूमिका में इन अनुप्रेक्षाओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। एकत्व भावना के ध्यान में साधक स्वयं को एक देखता है अर्थात् राग-द्वष-कषाय आदि से अपनी आत्मा को विमुक्त देखता है। पर्याय दृष्टि से अनित्य अनुभव करता है। अशरण अनुप्रेक्षा द्वारा शुद्ध भावों को ही एक मात्र शरण और त्राता अनुभव करता है। संसारानुप्रेक्षा में वह ममत्व विसर्जन की साधना करता है।'
ध्येय की अपेक्षा से ध्यान के भेद ध्येय की अपेक्षा से भी आचार्यों ने ध्यान के भेद किये हैं। इस अपेक्षा से ध्यान के तीन भेद हैं-(१) परावलम्बन ध्यान, (२) स्वावलम्बन ध्यान, (३) निरवलम्बन ध्यान ।
(१) परावलम्बन ध्यान-यह ध्यान बाहरी अवलम्बनों का आधार लेकर किया जाता है । साधक इस प्रकार के ध्यान में बाह्य वस्तुओं अथवा पदार्थों का अवलम्बन लेता है । दशाश्र तस्कंध में बारहवीं भिक्ष प्रतिमा में जो 'एक पुद्गल पर दृष्टि निक्षेप' ध्यान का वर्णन हुआ है, वह इसी ध्यान के अन्तर्गत है। .... (२) स्वावलम्बन ध्यान-इसमें साधक बाहरी पदार्थों का अवलम्बन नहीं लेता; अपने विचारों एवं कल्पनाओं द्वारा निर्मित भावों कल्पना-चित्रों पर चित्त को एकाग्र करता है।
___(३) निरवलम्बन ध्यान-इस ध्यान में साधक न बाहरी अवलम्बनों का आश्रय लेता है और आन्तरिक अवलम्बनों का। वह स्थिति पूर्णतया विचार और विकल्पशून्य होती है । .. इस साधना में साधक का ध्यान स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होता चला जाता है। सूक्ष्म होने पर साधक का चित्त स्थिर और संकल्प-विकल्प रहित हो जाता है, उसकी धर्मध्यान की साधना पूर्ण हो जाती है।
योग की अपेक्षा से धर्मध्यान के भेद . त्रियोग का निरोध और निश्चलता योग है। योग साधना का ध्येय तीनों योगों और विशेषरूप से मनोयोग को-चित्तवृति को स्थिर करना, एक ध्येय पर लगाना है । चित्त की स्थिरता के लिए आचार्य हेमचन्द्र तथा शभचन्द्र ने पाँच धारणाएँ बताई हैं-(१) पाथिवी धारणा,
.१ ध्यानशतक ३१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org