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________________ ( ४७ ) अन्तिम पुद्गलपरावर्त जितना समय बाकी रह जाता है तब उसमें योगप्राप्ति या आध्यात्मिक विकास के क्रम का आरम्भ होता है । जो क्रमशः उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता हुआ परिपूर्णता को प्राप्त होता है । यही योग-प्राप्ति का आरम्भिक काल है । योग-प्राप्ति की इस आरम्भिक दशा में ही आत्मा के ज्ञानादि स्वाभाविक गुणों में विकासोन्मुखता का प्रारम्भ हो जाता है जिसके कारण मोह से प्रभावित होने के स्थान में वह उसके ऊपर अपना प्रभाव जमाना आरम्भ कर देती है । अतएव उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति प्राशस्त्य और ऊपर दर्शाये गये योगाधिकारी के गुणों से ओतप्रोत होती है । योगनिष्णात गुरु की आवश्यकता अब योग के विषय में सब से अधिक महत्त्वपूर्ण और विचारणीय जो बात है। उसकी ओर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है । वह है सद्गुरु की प्राप्ति । यों तो व्यावहारिक और पारमार्थिक प्रत्येक विषय का यथार्थानुभव प्राप्त करने के लिये योग्य अनुभवी गुरु की आवश्यकता रहती ही है, परन्तु योग के विषय में तो योगनिष्णात गुरु की असाधारणरूप में आवश्यकता है । कारण कि योग साधना का विषय व्यावहारिक अनुभवरूप है जो मार्गदर्शक योगनिष्णात गुरुजनों के साहचर्य के बिना कथमपि उपलब्ध नहीं हो सकता । योग और उसके अंगों में प्राप्त होने वाले आसन, प्राणायाम, ध्यान और समाधि के व्यावहारिक स्वरूप का अनुभव तब तक हो सकता जब तक कि गुरु उसके तत्त्व का व्यावहारिक प्रयोगात्मक शिक्षण न दे के । इसके अतिरिक्त सद्गुरु के बिना किये जाने वाले योगानुष्ठान में लाभ की पेक्षा हानि की अधिक संभावना रहती है । आसन और मुद्रा का ज्ञान तो असागणरूप से गुरुजनों के व्यावहारिक शिक्षण की अपेक्षा रखता है । इसलिये योग की यासी आत्मा को योग निष्णात गुरुजनों का साहचर्यं सब से अधिक उपादेय है । उपसंहार योग - विषय में प्रवेश करने के लिये जिन उपयोगी विषयों का प्रथम ज्ञान होना आवश्यक है उनका यह संक्षिप्त वर्णन उपोद्घात के नाम से पाठकों के समक्ष उपस्थित कर दिया है । इस विषय में इतना और स्मरण रखना चाहिये कि समाहित प्रर्थात् एकाग्रचित्त वाले साधक को तो समाधियोग-ध्यानयोग ही अनुष्ठेय है और युत्थानचित्त-विक्षिप्तचित्त को प्रथम चित्त के मलविक्षेप को दूर करने के लिये क्रियायोग का अनुष्ठान करना पड़ता है । अतः समाधि और क्रियारूप से लक्षित होने वाले वध योग में समाहित और विक्षिप्त दोनों प्रकार के साधकों को मर्यादित अधिकार प्राप्त है । आशा है कि योगविषयक सक्षेपरूप से किये गये इस उपोद्घात से योग-विषय प्रवेश करने के लिये पाठकों को कुछ न कुछ सुविधा अवश्य प्राप्त होगी । - उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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