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________________ ( ४६ ) होती। यथा-'वितिगिंछ समावण्णण अप्पाणणं णो लभति समाधि' (आचारांग अ० ५, उ० ५)-(छा.) विचिकित्सां समापन्न नाऽऽत्मना नो लभ्यते समाधिः )। त्याग-श्रद्धा के अतिरिक्त दूसरा गुण त्याग है। योग-मार्ग में प्रयाण करने वाले साधक में श्रद्धा की भांति त्याग-वृत्ति का होना भी परम आवश्यक है । जब तक हृदय में त्याग-वृत्ति की भावना जागृत नहीं होती तब तक योग में अधिकार प्राप्त होना दुर्घट है। त्याग-वृत्ति में एषणाओं का त्याग ही प्रधान' है । लोकेषणा, पुत्रषणा और धनादि की एषणा, ये तीनों ही एषणाएँ-इच्छाएँ योग-प्राप्ति में-- जीवन के आध्यात्मिक विकास में प्रतिबन्धक-विघ्नरूप-हैं। इससे योगविघातक विषय-कषायों को अधिक पोषण मिलता है । अतः योग के अधिकारी को इन एषणाओं का परित्याग अवश्य कर देना चाहिए । इनके परित्याग से सांसारिक विषयभोगों के उपभोग की लालसा के क्षीण हो जाने पर साधक को योगविषयक अधिकार स्वयमेव प्राप्त हो जाता है। ___ भावशुद्धि-योग-प्राप्ति का सब से अधिक आवश्यक उपाय भावशुद्धि है । इसके बिना साधक की कोई भी योगक्रिया सम्पन्न और फलप्रद नहीं हो सकती। क्रिया और भाव का शरीर और आत्मा जैसा सम्बन्ध है। क्रिया शरीर और भाव आत्मा है । आत्मा के बिना शरीर जैसे चेष्टाशून्य होकर किसी काम का नहीं रहता है, उसी प्रकार भावशून्य क्रिया भी निरर्थक अथच इच्छित फल को देने वाली नहीं हो सकती है । अन्तरंग आशय का ही दूसरा नाम भाव है। उसकी निर्मलता ही भावशुद्धि है। शुभ मध्यवसाय भी इसी का नामान्तर है । __ इस प्रकार शुद्ध श्रद्धा, त्यागवृत्ति, और भावशुद्धि, इन सद्गुणों के उपार्जन से साधक-जीव को योगाधिकार सम्प्राप्त होता है । अर्थात् वह योगसाधन का अधिकारी बन जाता है। योगप्राप्ति अथवा आध्यात्मिक विकास का आरंभ काल अविद्या या मोह के प्रभाव से जन्म-मरण की परम्परारूप संसार चक्र में घटिका-यन्त्र की भांति भ्रमण करते हुए इस जीवात्मा को कल्पनातीत समय व्यतीत हो चुका है जो कि शास्त्रीय परिभाषा में अनादि शब्द से व्यक्त किया गया है। इस कर्मसंयोगजन्य अनादिप्रवाहपतित आत्मा पर से सौभाग्यवश जब अविद्या अथवा मोह का प्रभाव कम होना आरम्भ होता है तभी से योगप्राप्ति अथवा आध्यात्मिक विकास के आरम्भ का बीजारोपण हो जाता है। और वह चरम-अन्तिम-पुद्गलपरावर्त जितना समय शेष रहने पर होता है । इससे प्रथम समय-(जिसमें यह आत्मा सदा अविकसित अवस्था में ही रहती है) अचरमपुद्गल-परावर्त कहलाता है। इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा की इस जन्म-मरण-परम्परा के समाप्त होने में जब १. 'णो लोगस्से सणं चरे' -(आचा. अ० ४, उ. १, सू. २२६) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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