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________________ प्रज्ञाप्रकर्षादि साधन, उत्तरोत्तर अपने आप ही प्राप्त होते चले जाते हैं। माता के समान कल्याण करने वाली यह श्रद्धा साधक की रक्षा पुत्र की तरह करती है ( 'सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति' व्या० भा० १-२० )। 'अन्तःकरण में विवेकपूर्वक वस्तुतत्त्व, ज्ञयपदार्थ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने की जो अभिरुचि-तीव्र अभिलाषा----उसका नाम श्रद्धा है । जैन-परिभाषा में इसको सम्यग्दृष्टि किंवा सम्यग्दर्शन के नाम से सम्बोधित किया गया है' ('तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक् - दर्शनम्'-तत्वार्थ० ११२) इस सम्यग्दृष्टिरूप श्रद्धागुण की प्राप्ति, किसी साधक को तो स्वतः अर्थात् जन्मान्तरीय उत्तम संस्कारों के प्रभाव से अपने आप ही हो जाती है और किसी को सत्-शास्त्रों के अभ्यास अथवा योग्य गुरुजनों या उत्तम पुरुषों के सहवास से होती है। अस्तु, साधक की आत्मा में सत्यदृष्टि के उदय होते ही शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य, ये पांच सद्गुण' उसमें अपने आप ही आ उपस्थित होते हैं। तात्पर्य कि ये पाँचों, शुद्ध श्रद्धा किंवा सम्यग्दर्शन के परिचायक हैं । जहाँ पर ये होंगे वहाँ पर सम्यग्दर्शन अवश्य होगा अर्थात् साधक के हृदय की शुद्ध श्रद्धा को परखने के लिए ये पांचों सद्गुण कसौटी का काम देते हैं । जहाँ पर ये नहीं, वहाँ पर श्रद्धा नहीं किन्तु श्रद्धाभास है, सम्यग्दर्शन नहीं अपितु उसका ढोंग है । (१) सम-उदय हुए क्रोध, मान, माया आदि तीव्र कषायों का त्याग शम कहलाता है। (२) संवेग-मोक्ष विषयक तीव्र अभिलाषा का नाम संवेग है । (३) निर्वेद-सांसारिक विषय-भोगों में विरक्ति अर्थात् उनको हेय समझकर उनमें अनादरवृत्ति रखना निर्वेद है । (४) अनुकम्पा-दुःखी जीवों पर दया करना अर्थात् किसी प्रकार का स्वार्थ न रखते हुए दुःखी प्राणियों के दुःख को दूर करने की इच्छा और तदनुकूल प्रयत्न करने को अनुकम्पा कहते हैं ।। (५) आस्तिक्य-सर्वज्ञ-कथित पदार्थों में शंकारहित होना अर्थात् पूर्ण विश्वाश करना आस्तिक्य है। इन पाँच कारणों से आत्मगत सम्यक्त्व की पहचान होती है अर्थात् उसके अस्तित्व का बोध होता है । नोट-आगमों में स्पष्ट लिखा है कि संशयात्मा को समाधि की प्राप्ति नहीं १. 'कृपाप्रशमसंवेगनिर्वेदास्तिक्यलक्षणाः । ___गुणा भवन्तु यच्चित्त स स्यात् सम्यक्त्वभूषितः' । (गुणस्थान क्रमारोह श्लोक २१) २. 'श्रीसर्वज्ञप्रणीतसमस्तभावानामस्तित्वनिश्चयचिन्तनमास्तिक्यम् ।। (गुणस्थान क्रमारोह श्लोक २१ की वृत्ति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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