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________________ ( ४४ ) शुभ-प्रवृत्तिप्रधान है और गुप्ति-मनोगुप्ति में मन की एकाग्रता और निरोध मुख्य है । इस प्रकार मन के विषय में समिति-गुप्ति द्वारा सत्प्रवृत्ति, एकाग्रता और निरोध, ये तीन विभाग प्राप्त होते हैं। इनमें अध्यात्म और भावनारूप प्रथम के दो योगों में तो सत्प्रवृत्तिरूप मनःसमिति का प्राधान्य रहता है और ध्यान तथा समता योग में एकाग्रतारूप मनोगुप्ति की मुख्यता है। एवं वृत्तिसंक्षय नाम के पांचवें योग में सम्यकनिरोधरूप मनोगुप्ति प्राप्त होती है । इस अवस्था में निरोधरूप गुप्ति को निम्नलिखित तीन भाव प्राप्त होते हैं : १. कल्पनाजाल से विमुक्त; २. समभाव में सुप्रतिष्ठित, और ३. स्वरूप में प्रतिबद्ध होना । मनोगुप्ति के ये तीनों ही भाव सयोग-केवली और अयोग-केवली नाम के तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में चरितार्थ होते हैं। इसी प्रकार योगारम्भ में सत्प्रवृत्तिरूप मनः समिति और संप्रज्ञात में एकाग्रता और असंप्रज्ञात में निरोधरूप मनोगुप्ति प्राप्त होती है । एवं निरोधरूप संस्कारशेष असंप्रज्ञात में कल्पना-जाल से निवत्ति और समभाव में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और गुणप्रतिप्रसव अथवा स्वरूपप्रतिष्ठारूप कैवल्य-मोक्ष-दशा में उसे मनोगुप्ति के निरोधलक्षण परिणाम का स्वरूप प्रतिबद्धता का लाभ होता है । अतः योग के स्वरूपनिर्णय में समिति और गुप्ति को सब से अधिक वैशिष्ट्य प्राप्त है । और वास्तव में देखा जाय तो समिति-गुप्ति यह योग का ही दूसरा नाम है । इसके स्वरूप में योग के सभी प्रकार के लक्षण समन्वित हो जाते हैं। योग का अधिकार इस प्रकार योग का विवेचन करने के अनन्तर अब उसके अधिकारी के विषय में भी कुछ विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। श्रद्धा-योगविषयक अधिकार प्राप्त करने वाले साधक में सब से प्रथम श्रद्धा का होना परम आवश्यक है । योगमार्ग के पथिक के लिये श्रद्धा से बढ़कर और कोई उत्तम पाथेय नहीं है। श्रद्धा, यह सारे सद्गुणों की जननी है। इसका आश्रय लेने वाले साधक में चित्तप्रसाद, वीर्य, उत्साह, स्मृति, एकाग्रता, समाधि और १. 'प्रवृत्तिस्थिरताभ्यां हि मनोगुप्तिद्वये किल । भेदाश्चत्वारो दृश्यन्ते तत्रान्त्यायां तथान्तिमः' ।। (२८ यो० भे० द्वा०) उपाध्याय यशोविजयजी ने मनोगुप्ति के ही शुभप्रवृत्ति और एकाग्रता ये दो विभाग करके अध्यात्म और भावना में शुभप्रवृत्तिरूप ध्यान और समतायोग में एकाग्रतारूप मनोगुप्ति मानकर वृत्ति संक्षय में उसका-मन का-सर्वथा निरोध स्वीकार किया है परन्तु इसकी अपेक्षा मन का आगमसम्मत समिति-गुप्ति द्वारा उक्त विभाग अधिक संगत प्रतीत होता है। २. 'विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनश्चेति मनोगुप्तिस्त्रिधोदिता' ॥ (३० यो. भे. द्वा.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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