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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
श्रत की सेवना से अपने कदम आगे बढ़ाता है, भावना, अनुप्रेक्षा, प्रेक्षा, प्रतिमा योग आदि विभिन्न योगों की साधना करता है, उन सबकी चरम परिणति ध्यान में होती है, शभ और शद्ध अथवा धर्म और शुक्लक्षयान की साधना से वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है। जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह विभिन्न प्रकार के उपसर्ग-परीषह सहता है, तपों की साधना-आराधना करता है, वह लक्ष्य इसे ध्यानयोग (धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान) की साधना से प्राप्त हो जाता है। अतः ध्यानयोग साधना, मुक्ति की सहज एवं साक्षात् साधना है।
शुक्लध्यान और समाधि पातंजल अष्टांग योग का अन्तिम अंग समाधि है। साधक जो यम, नियम आदि सात अंगों की साधना करता है, उसकी चरम परिणति समाधि है । समाधि ही साधक का लक्ष्य है।
योगदर्शन में समाधि के दो भेद माने गये हैं। इनमें से प्रथम हैसबीज समाधि और दूसरी है निर्बीज समाधि। इन्हीं को क्रमशः संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात तथा सविकल्प और निर्विकल्प एवं सवितर्क और निर्वितर्क अथवा सविचार और निर्विचार समाधि भी कहा गया है।
___संप्रज्ञातयोग (समाधि) के विषय में बताया गया है कि वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता-इन चारों के सम्बन्ध से युक्त चित्तवृत्ति का समाधान संप्रज्ञात योग है।'
संप्रज्ञातयोग के ध्येय पदार्थ तीन हैं-(१) ग्राह्य-इन्द्रियों के स्थूल और सूक्ष्म विषय (२) ग्रहण-इन्द्रियाँ और अन्तःकरण (३) ग्रहीता-बुद्धि के साथ एकरूप हुआ पुरुष अथवा आत्मा।
जब साधक पदार्थों के स्थूल रूप में समाधि करता है, समाधि में स्थिर होता है और उस समाधि में शब्द, अर्थ तथा ज्ञान का विकल्प रहता है, तब तक उसकी समाधि सवितर्क समाधि होती है और जब इनका विकल्प नहीं रहता तो वही समाधि निवितर्क हो जाती है।
इसी प्रकार जब साधक (ग्रहीता-आत्मा अथवा पुरुष) ग्राह्य और ग्रहण के सूक्ष्म रूप में समाधि करता है, समाधि स्थित होता है और जब तक उस समाधि में शब्द, अर्थ तथा ज्ञान का विकल्प रहता है, तब तक वह
१ पातंजल योग सूत्र १/१७-वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात्संप्रज्ञातः ।
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