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शुक्लध्यान एवं समाधियोग ३०५ समाधि सविचार होती है और इनका विकल्प न होने पर निविचार हो जाती है।
निर्विचार समाधि में विचार तो नहीं होता किन्तु अहंकार का सम्बन्ध रहता है और ध्याता (साधक) को आनन्द का अनुभव होता है। जब तक आनन्दानुभूति विद्यमान रहती है तब तक उसकी समाधि आनन्दानुगत रहती है और जब साधक को आनन्द को अनुभूति भी नहीं रहती, यह प्रतीति भी विलुप्त हो जाती है तभी वह समाधि अस्मितानुगत हो जाती है। यही निविचार समाधि की निर्मलता हैं।'
इस (सम्प्रज्ञात योग) में सत्त्व के उत्कर्ष होने से चित्त की एकाग्रता लक्षण परिणत होने पर साधक आत्मा सद्भूत अर्थ का प्रकाश करती हैपरमार्थभूत ध्येय वस्तु का साक्षात्कार करती है, चित्तगत क्लेशों को दूर करती है, कर्मबन्धनों को शिशिल और निरोध को अभिमुख करती है। यही सम्प्रज्ञातयोग है।
सम्प्रज्ञातयोग समाधि में ध्यान, ध्याता, ध्येय-तीनों का आत्मा को आभास रहता है तथा ध्येय आलम्बन रूप में होता है, इसीलिए इसका नाम सबीज समाधि है। इसमें ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय आदि का विकल्प बना रहता है। चित्तवृत्ति का अवस्थान आत्मा में नहीं हो पाता।
असम्प्रज्ञात समाधि में सभी विकल्पों का लय हो जाता है, इसमें ज्ञान आदि का कोई विकल्प नहीं रहता । जिस प्रकार लवण पानी में घुलकर पानी रूप हो जाता है, इसी प्रकार इस समाधि अवस्था में चित्त भी आत्मा में लय हो जाता है, मन को पृथक सत्ता नहीं रहती। इस समाधि में कोई आलम्बन नहीं रहता, ध्याता-ध्यान-ध्येय एकाकार हो जाते हैं । इसमें सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
१ पातंजल योगसूत्र १/१७ की भाष्य एवं टीका २ सम्यक् प्रज्ञायते क्रियते ध्येयं यस्मिन्निरोधविशेषे सः सम्प्रज्ञातः ।
अर्थात्-जिस में साधक को अपने ध्येय का भली प्रकार साक्षात्कार होता है, वह सम्प्रज्ञात है। -योगसूत्र १/१ टिप्पण में बालकराम स्वामी (क) क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रे निरुद्धमिति चित्तभूमयः । तत्र विक्षिप्ते चेतसि
विक्षेपोपसर्जनीभूतः समाधिर्न योगपक्षे वर्तते । यस्त्वेकाग्रे चेतसि सद्भूतमर्थं प्रद्योतयति-क्षिणोति च क्लेशान् कर्मबन्धनानि श्लथयति-निरोधाभिमुखं करोति स सम्प्रज्ञातो योगः इत्याख्यायते । स च वितर्कानुगतो,
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