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________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग ३०३ ईश्वर और जीवन्मुक्त बन जाता है। दूसरे शब्दों में, इस ध्यान के फलस्वरूप साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। (३) सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान इस शुक्लध्यान का अभिप्राय है काययोग को सूक्ष्म करना तथा अप्रतिपाती विशेषण इस बात को प्रगट करता है कि इस शक्लध्यान में प्रवेश करने के बाद साधक वापस नहीं लौटता। तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली भगवान का आयुष्य जब एक अन्तमुहर्त शेष रहता है, तब उन वीतराग भगवान में योग-निरोध की प्रक्रिया आरंभ होती है। सर्वप्रथम वे भगवान स्थूल काययोग के सहारे से स्थल मनोयोग को सूक्ष्म करते हैं। फिर सूक्ष्म काययोग के अवलम्बन से सूक्ष्म मन और वचनयोग का भी निरोध करते है। तब केवल सूक्ष्म काययोग अर्थात् श्वासोच्छास की सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है। (४) समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान यह शुक्लध्यान चौदहवें गुणस्थान में प्राप्त होता है। जिस समय श्वास-प्रश्वास आदि सूक्ष्म क्रियाओं का भी निरोध हो जाता है और आत्मप्रदेशों में किसी भी प्रकार का कंपन नहीं होता, तब वह ध्यान समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति कहलाता है। इस समय आत्मा में किसी भी प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म, मानसिक, वाचिक, कायिक व्यापार नहीं होते । आत्म-प्रदेश पूर्ण रूप से निष्कंप बन जाते हैं। आत्मा के भवोपनाही आयु-नाम-गोत्र-वेदनीय कर्मों के बन्धन भी निःशेष हो जाते हैं। आत्मा अयोगी बन जाता है । इस दशा को शैलेशी दशा कहा जाता है । आत्मा पूर्ण रूप से निष्कलंक एवं निष्प्रकम्म बन जाता है। .. तत्क्षण ही आत्मा निर्मल, शांत, निरामय, अरुज, अनंत ज्ञान-दर्शनवीर्य-सुख आदि आत्मिक भावों में लीन शिव पद में जा विराजता है, उसकी यह दशा अनन्त काल तक रहती है। उसका भवभ्रमण का चक्कर सदा-सदा के लिए छूट जाता है। ___ आत्मा की मुक्ति का हेतू है ध्यान । धमध्यान उपाय है शक्लध्यान का, अतः यह परम्परा से मोक्ष का साधन है और शुक्लध्यान साक्षात मुक्ति का साधन है। मुक्ति-स्थान लोक के अग्रभाग पर है, जहाँ मुक्तात्मा अपने सिद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव और सच्चिदानन्द स्वरूप में रमण करती हई अनन्त काल तक विराजमान रहती है । यही सिद्धि पद अथवा निर्वाण है। साधक सम्यक्दर्शन से जिस योगमार्ग पर चरण रखता है, शील और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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