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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
पर्याय पर, मनोयोग से वचनयोग पर, वचनयोग से काययोग पर - इस प्रकार अर्थ, व्यंजन और योग पर उसका ध्यान संक्रमित होता रहता है । इस संक्रमण का अर्थ साधक के ध्यान में विक्ष ेप नहीं है अपितु सिर्फ आलंबन का ही परिवर्तन है और यह आलंबन भी आन्तरिक होता है, बाह्य नहीं होता तथा सहज ही होता रहता है, इसमें प्रयत्न अपेक्षित नहीं है ।
ध्यान की इस पृथक्त्व और संक्रमणशील स्थिति के कारण ही यह शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्क सविचार कहा जाता है ।
(२) एकत्व - वितर्फ अविचार शुक्लध्यान
प्रस्तुत शुक्लध्यान में साधक, श्र तज्ञान का आश्रय लेते हुए भी अभेदप्रधान ध्यान में लीन होता है । न उसका ध्यान अर्थ आदि पर संक्रमण करता है और न योगों पर ही । उसका ध्यान निर्वात स्थान पर दीपशिखा के समान अचंचल और निष्कंप होता है, उसमें किसी भी प्रकार की चंचलता नहीं रहती, उसका ध्यान स्थिर हो जाता है ।
साधक इस ध्यान की दशा में निर्विचार होता है, मन संकल्प-विकल्पों से शून्य हो जाता है । उसके समस्त संकल्प-विकल्प, आवेग संवेग समाप्त हो जाते हैं । अवचेतन, अर्द्ध चेतन और चेतन मन संकल्पों से सर्वथा रहित होकर स्वच्छ दर्पण के समान हो जाते हैं । मनोलय अर्थात् - आत्मज्ञान में मन के विलय की स्थिति आ जाती है ।
इस ध्यान की पूर्णता - अन्तिम स्थिति में भाव-मन आत्म-सत्ता में लीन हो जाता है ।
इस शुक्लध्यान की साधना से साधक को एक विशेष प्रकार के उदात्त अनुभव की प्राप्ति होती है । अब तक साधक को आत्म-सत्ता की जो परोक्ष अनुभूति होती थी, वह अनुभूति प्रत्यक्ष हो जाती है ।
इसके प्रभाव से आत्मा को सर्वपदार्थबोधक ज्ञान, दर्शन की प्राप्ति हो जाती है और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों के कर्मावरणों का आत्यन्तिक क्षय हो जाता है । परिणामस्वरूप आत्मा की शक्तियों का परिपूर्ण विकास हो जाता है और साधक की आत्मा मध्यान्ह के सूर्य के समान चमकने लगती है, आभासित होने लगती है । साधक को कैवल्य (केवलज्ञान- केवलदर्शन) की प्राप्ति हो जाती है । वह साधक की श्र ेणी से ऊपर उठकर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वशक्तिसम्पन्न, सर्व सुखसम्पन्न,
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