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बाह्य तक: बाह्य गावरम-शुद्धि साधना
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रस दीप्तिकारक अर्थात् मन में उत्तेजना उत्पन्न करने वाले', विकृति बढ़ाने वाले होते हैं, अतः सरस आहार को विकृति भी कहा गया है। शास्त्रों में 8 विकृतियाँ बताई गई हैं-(१) दूध, (२) दही, (३) नवनीत, (४) घत, (५) तेल, (६) गुड़, (७) मधु, (८) मद्य और (8) मांस। इनमें से अन्तिम तीन तो महाविकृतियाँ हैं, जिन्हें साधक ग्रहण करता ही नहीं। शेष छह विकृतियों का प्रयोग भी बड़ी सावधानी से करता है।
रसना इन्द्रिय का सीधा सम्बन्ध ब्रह्मचर्य की साधना से है । रस-लोलुपी कभी भी ब्रह्मचर्य की साधना कर ही नहीं सकता, यहाँ तक कि वह अन्य सभी इन्द्रियों को भी वश में नहीं रख सकता । इसीलिए रस-परित्याग को तपों में स्थान दिया गया है और इससे सर्वेन्द्रिय संयम अपेक्षित है।
तपोयोगी साधक रस-परित्याग द्वारा अपनी सभी इन्द्रियों और मन को वश में रखने की साधना करता है, वह अपने मन में विकारी भावना नहीं आने देता। . भगवान महावीर ने रस-परित्याग तप की दो भूमिकाएं बताई हैं(१) रस को ग्रहण ही न करना और (२) ग्रहीत रस पर राग-भाव न करना।
वस्तुतः साधक की रसों के प्रति गृद्धि और लोलुपता उसकी साधना में विघ्न बन जाती है, वह ध्यान और स्वाध्याय में अपना चित्त स्थिर नहीं कर पाता। रस की ओर उसका चित्त दौड़ता रहता है, रसपूर्ण आहार प्राप्त होने पर उसे हर्ष तथा रूक्ष आहार मिलने पर खेद होता है अतः उसका समताभाव खण्डित हो जाता है। इन्द्रिय-विषयों के प्रति उसका ममत्वभाव हो जाता है।
. रस-परित्याग तप की साधना का लक्ष्य भोजन में अस्वाद वृत्ति एवं अनासक्त भाव है। इस साधना से साधक को वैराग्य की दृढ़ता, सन्तोष की भावना और ब्रह्मचर्य की आराधना-ये तीन उपलब्धियां होती हैं।
इसीलिए रस-परित्याग की साधना करने वाला तपोयोगी साधक आहार करता हुआ भी अस्वादवृत्ति की साधना करता है।
१ पायं रसा दित्तिकरा नराणं ।
-उत्तराध्ययन सूत्र ३२/१० २ स्थानांग ६/६७४ ३ जिब्भिन्दिय विसयप्पयार निरोहो वा, जिब्भिन्दिय विसयपत्तेसु अट्ठसु रागदोसनिग्गहो वा।
.-अपपातिक सूत्र, समवसरण प्रकरण
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