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२४२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
साधु के भिक्षा ग्रहण करने से दाता को लौकिक और पारलौकिक लाभ मिलते हैं ।
तत्त्वार्थसूत्र' आदि कई ग्रन्थों में भिक्षाचरी के लिए वृत्तिपरिसंख्यान अथवा वृत्तिसंक्षेप शब्द भी प्राप्त होता है ।
यद्यपि भिक्षाचरी, गोचरी, माधुकरी वृत्ति और वृत्ति-संक्षेप - इन सभी का भाव समान है किन्तु योग की अपेक्षा से वृत्तिसंक्षेप शब्द अधिक उपयुक्त है । क्योंकि वृत्तिसंक्षेप शब्द की मूल ध्वनि है- वृत्तियों का मन-वचनकाय और चित्त की वृत्तियों तथा कषाय आदि विभावों का संक्षेपीकरण, उनका जो फैलाव है, विस्तार है उसे समेटना, कम करना, सीमित दायरे भें ले आना, उनका संकुचन करना ।
यह संकुचन गृहत्यागी श्रमण भिक्षाचरी (अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं के साधनों को गृहस्थ श्रावक से प्राप्त करते समय ) द्वारा अपनी मर्यादा और अनेक प्रकार के अभिग्रहों से करता है तथा गृहस्थ साधक (योगी) चौदह नियमों को प्रतिदिन ग्रहण करके करता है । दोनों ही अपनीअपनी मर्यादा, सीमा, योग्यता, क्षमता और पद के अनुकूल अपनी वृत्तियों का संक्षेपीकरण अथवा संकुचन करते हैं ।
तपोयोग की साधना में वृत्तियों के संक्षेपीकरण का बहुत महत्व है । इससे साधक अपनी असीमित इच्छाओं तथा वृत्तियों और अनिवार्य आवश्यकताओं को सीमित कर लेता है । मन-वचन-काय की वृत्ति प्रवृत्तियाँ सीमित होने से उसका सिन्धु के समान सावद्ययोग (पाप) बिन्दु के समान रह जाता है ।
इस प्रकार वृत्तिसंक्षेप तप की साधना करके तपोयोगी त्याग की दृढ़ भूमिका अपने मन-मानस में तैयार करता है ।
(४) रस - परित्याग तप: अस्वादवृत्ति की साधना
किसी भी इन्द्रिय के विषय की ओर मन के राग भाव का न जोड़ना तप है । तपोयोगी रस - परित्याग तप का आचरण करता हुआ जिह्वा अथवा उसना इन्द्रिय के रस - स्वाद के प्रति अनासक्त भाव रखता है, सरस- स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति की इच्छा भी नहीं करता । जहाँ तक सम्भव हो सकता है वह ऐसा आहार ग्रहण नहीं करता ।
१ तत्त्वार्थ सूत्र ६ / १६
२ उवासगदसाओ, पढमं अज्झयण
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