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लेश्या-ध्यान साधना
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लेश्या-शोधन की दूसरी प्रक्रिया रंगों का ध्यान है । यह बाह्य साधना है। इसकी गति अथवा पहुँच प्राण शरीर तक ही है । इसके द्वारा साधक को शान्ति का अनुभव तो होता है, किन्तु वह स्थायी नहीं होता । साधक विभिन्न प्रकार के रंगों के ध्यान द्वारा विभिन्न प्रकार के आवेगों के उपशमन का अनुभव करता है। वे आवेग कुछ काल के लिए उपशान्त भी हो जाते हैं। यह स्थिति ऐसी ही है, जैसे निर्मली डालने से पानी की गन्दगी नीचे बैठ जाती है और जल शुद्ध दिखाई देने लगता है। हाँ, यदि इसमें शुभ भावनाओं का भी योग मिल जाये तो आवेगों का स्थायी उपशमन और दूसरे शब्दों में क्षय भी हो जाता है। रंग के साथ भावना का योग मिलने से प्रभाव में स्थायित्व आता है।
यदि बाह्य दृष्टि से विचार किया जाय तो लेश्याध्यान रंगों का ध्यान है; क्योंकि लेश्याओं के भी रंग होते हैं।
लेश्याओं का वर्गीकरण शुद्धि-अशुद्धि और असंक्लिष्टता तथा संक्लिष्टता के आधार पर लेश्याओं के छह वर्गीकरण किये गये हैं(१) कृष्ण लेश्या
अशुद्धतम
क्लिष्टतम (२) नील लेश्या
अशुद्धतर क्लिष्टतर (३) कापोत लेश्या
क्लिष्ट (४) तेज लेश्या
शुद्ध
अक्लिष्ट (५) पद्म लेश्या
शुद्धतर
अक्लिष्टतर (६) शुक्ल लेश्या शुद्धतम अक्लिष्टतम
नामों के अनुसार इनके रंग भी हैं-कृष्ण लेश्या का रंग काला, (अपराबैंगनी से बैंगनी तक), नील लेश्या का रंग नीला, कापोत लेश्या का रंग हरा (कपोत के रंग जैसा-आकाश सदृश नीला), तेजोलेश्या का लाल (अरुण-बाल सूर्य के समान), पद्मलेश्या का पीला (उगते हुए सूर्य की आभा जैसा जिसमें हल्की सी लालिमा भी होती है) और शुक्ललेश्या का रंग श्वेत (शंख के समान) होता है।
ये रंग इन लेश्याओं के पुद्गल परमाणुओं के होते हैं ।
जैन शास्त्रों में वर्ण पाँच बताये हैं-(१) काला, (२) पीला, (३) नीला, (४) लाल और (५) सफेद । आधुनिक विज्ञान सात रंग मानता है-(१)
अशुद्ध
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