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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
चारों ओर विकीर्ण होता है; किन्तु सूक्ष्म पुद्गलों द्वारा निर्मित होने के कारण चर्म-चक्षुओं से इसका दृष्टिगोचर हो पाना कठिन है। वैज्ञानिकों ने अत्यन्त संवेदनशील कैमरों से इसके चित्र लिये हैं तथा डाक्टर किलनर द्वारा आविष्कृत ऑरोस्पेक चश्मा (aurospec goggles) द्वारा इसे देखा जा सकता है और जिस योगी का आज्ञा चक्र जागृत हो गया है तथा उसे दिव्य दृष्टि (सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं को देखने की शक्ति) प्राप्त हो गई हो, वह तो उसे देख ही सकता है। लेश्याध्यान : प्राण शरीर-शुद्धि की प्रक्रिश
लेश्याध्यान का साधक इस आभामण्डल सहित सम्पूर्ण प्राण शरीर की शुद्धि करता है । यह शुद्धि वह दो प्रकार से करता है-(१) भावना द्वारा और (२) रंगों के ध्यान द्वारा ।
__भावना आन्तरिक है अतः यह आन्तरिक शुद्धि का माध्यम है। भावना का अभिप्राय यहाँ शुभ और शुद्ध भावना है।
साधक अपने मन-मस्तिष्क को सर्वप्रथम बुरी और कुत्सित भावनाओं से रिक्त करता है; ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि विकारी भावनाओं को दूर करता है और इनके स्थान पर दया, क्षमा, परोपकार, आत्म-भाव आदि की शुभ-शुद्ध भावनाओं से मन-मस्तिष्क को संवासित करने का प्रयत्न करता है।
ज्यों-ज्यों भावनाएँ शुभ-शुद्ध होती जाती हैं, लेश्याएँ भी शुभ से शुभतर-शुभतम होती जाती हैं। साथ ही साथ प्राण शरीर भी ओजस्वी-तेजस्वी होता जाता है । जल से जिस प्रकार वस्त्र या शरीर धुलकर उजला होता है, उसी प्रकार भावना से धुलता हुआ तैसस् शरीर उज्ज्वल उज्ज्वलतर होने लगता है तब प्राणमय शरीर से विकीर्ण होने वाली विद्युत तरंगें भी प्रभाव शाली व प्रकाशमयी होती जाती हैं। परिणामस्वरूप चारों ओर का-दूर-दूर तक का वातावरण भी प्रभावित होता है।
___महान् योगियों और पवित्रात्माओं, उच्चकोटि के साधुओं के सान्निध्य में जो पशु-पक्षी अपना जन्मजात वैर भाव भी भूलकर शान्तिपूर्वक बैठ जाते हैं, उसका कारण लेश्या-शुद्धि का प्रभाव हो है। किसी उच्च भावना वाले या प्रखर मनोबल वाले व्यक्ति के संसर्ग का प्रभाव हमारे मन-मस्तिष्क पर पड़ता है, उसका कारण भी उसकी प्रबल लेश्याएँ ही हैं।
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