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२३२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
आत्मा का वास्तविक स्वरूप, उसके समस्त दिव्य गुण, अनन्त शक्ति प्रगट हो जाती है, वह अपने निजस्वरूप में अवस्थित हो जाती है, कोटि-कोटि सूर्यप्रभा के समान भास्वर हो उठती है और करोड़ों चन्द्रमाओं की ज्योत्स्ना के समान अमृतरूप शांति में स्थिर हो जाती है, अनन्त और अव्याबाध सुख में रमण करती है ।
और आत्मा अपनी स्वाभाविक दशा प्राप्त करता है—तयोयोग की
साधना द्वारा ।
तप के लक्षण
व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से 'तप' शब्द की रचना 'तप्' नामक धातु से हुई है । 'तप' धातु का अर्थ है तपना । अतः आचार्य अभयदेव ने निरुक्त की दृष्टि से तप का लक्षण बताया
रस- रुधिर- मांस-मेदास्थि मज्जा शुक्राण्यनेन तप्यन्ते कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम निरुक्तः । - स्थानांगवृत्ति ५ / १, पत्र २८३ अर्थात् - जिस साधना के द्वारा शरीर के रस, रक्त, मांस, मेद ( चर्बी ) अस्थि (हड्डी), मज्जा और शुक्र तप जाते हैं, शुष्क हो जाते हैं अथवा अशुभ कर्म जल जाते हैं, उनका क्षय हो जाता है, उस साधना को तप कहते हैं । आवश्यक सूत्र के टीकाकर मलयगिरि ने तप का यह लक्षण बताया है
- आवश्यक मलयगिरि, खण्ड २, अध्ययन १
अर्थात् — जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, वह तप है । दशकालिक के चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर का भी यही अभि
मत है-
तापयति अष्ट प्रकारं कर्म इति तपः ।
तवो णाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठि, नासेतितबुत्तं भवइ ।
- दशकालिक सूत्र — जिनदास चूर्णि अर्थात् - तप उस साधना को कहा जाता है जिसके द्वारा आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थियों को तपाया जाता है, नाश किया जाता है ।
कर्मग्रन्थियों को तपाना, नाश करना और आत्मा का शोधन करनाये दोनों बातें एक ही हैं । जब कर्म नष्ट हो जायेंगे तो आत्मा शद्ध हो ही जायेगी। इन दोनों में सिर्फ अपेक्षाभेद है । कर्म की अपेक्षा से कर्मों को क्षय
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